पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४१८

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+NardaroprintentinAMM भक्तिसुधास्वाद तिलक ! मानौं यही, हरि सों विगारिय" । कही जगन्नाथदेव, “लै प्रसाद जावी उहाँ, ल्यावौ हाथ, बोवौ बाग, सोई उर धारिये"। चले तहाँ घाइ, भूप आगे मिल्यो भाई, हाथ निकस्यो, लगाइ हियँ, भयो सुख भारियै । त्याए कर फूल, ता के भये फूल "दोना" के, जुनितहीं चढ़त भंग, गन्ध हरिप्यारिये ॥ १६५ ॥ (४३४). ..। वात्तिक तिलक। मन्त्री ने जब देखा कि यह मैंने राजा ही का हाथ काट डाला, तब वह बड़ा ही लज्जित हुआ, और पछताने लगा कि "मुझ अनजान ने यह क्या किया?" तब महाराज ने कहा कि “इसी हाथ को प्रेत मानो क्योंकि इसने हरि का अपराध किया है । तुमने तो बहुत अच्छा किया।" श्लोक-"प्रसादं जगदीशस्य अन्नपानादिकं च यत् । ___ ब्रह्मवनिर्विकारं हि यथा विष्णुस्तथैव तत् ॥ १॥". उसी क्षण श्रीजगन्नाथजी ने पण्डों को आज्ञा की कि "प्रसाद लेके वहाँ जाव, राजा को दो, भोर कटा हुभा हाथ लाके वाटिका में वो दो, (भूमि में गाड़ दो ) उसी से जो दोना होगा मैं उसी दौना को हृदय में धारण किया करूँगा।" पण्डा लोग उधर दौड़े, राजा उताउल हो भागे भा, उनकी . अगवानी कर उनसे सादर सविनय मिला, प्रसाद के लिये प्रेम से

दोनों ही हाथ उठाए ( हाथ बढ़ाये) तो दाहिना हाथ भी निकल

. पाया अँगुलियाँ इत्यादि सब पूरी पूरी, अब दक्षिण इस्त पहिले से भी अति सुन्दर हो पाया। चौपाई। "गहत प्रसाद हाथ जमि आयो । सकल पुरी 'जय जय' व छायो॥" प्रसाद को हृदय में लगाया, परस्पर मिले, भारी सुख और 'आनन्द हुआ। इर्ष से फूल के फूलरूपी कर को खोए, वाटिका में गाड़ दिया, वही सुगंधित पत्र “दौना" हुआ, कि जो भगवान् के १"विगारिये" -बिगाड़ किया है, अपराध किया है । २ "ल्याएकरफूल" कररूपी फूल को लाए, वा हम से फूलकर कर को लाए।