पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४१९

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४०० श्रीभक्तमाल सटीक । अंग पर नित्य चढ़ाया जाता है, और उसकी सुगंध सार को अति प्रिय है, अब तक प्रभाव प्रसिद्ध है। प्रभु की कृपालुता की जय ॥ (४४) श्रीकर्माबाईजी। (२४६) टीका । कवित्त । (५९७) हुती एक वाई, ताको “करमा" सुनाम जानि, विना रीति भाँति भोग खिचरी लगावही। जगन्नाथदेव आपु भोजन करत नीकैं, जिते लग भोग तामै यह अति भावही ॥ गयो तहाँ साधु, मानि 'बड़ो अपराध करें भैरै बहु स्वांस, सदाचार ले सिखावही । भई यो अवार, देखें खोलिक किवार, जौपे जूठनि लगी है मुख धोए दिनु श्रावहीं ॥ १६६ ॥ (४३३) वार्तिक तिलक । श्रीकर्माजी नामक एक वात्सल्यरस की बड़ी प्रेमिनी बाईजी श्रीपुरुषोत्तमपुरी ही में रहती थीं, सो बड़े भोर नित्य श्रीजगन्नाथजी को खिचड़ी भोग लगाया करती थीं, परंतु किसी रीति भाँति सदाचार पर ध्यान न देके विना स्नान चौका इत्यादि के ही खिचड़ी कर बड़ी ही प्रीति से अर्पण किया करतीं। इसका ध्यान तो अवश्य रखतीं कि अबेर न हो और कच्ची वा अलोनी न रहे ॥ चौपाई। “साँची प्रीति करै प्रभु माहीं । राति दिवस विसरै सुधि नाहीं ॥ कब मैं रचि रचि खिचरि वनाऊँ। कब लालहि मैं भोग लगाऊँ ।" __ श्रीजगदीश भगवान सुन्दर वालकरूप से नित्य प्रातःकाल पापही जाके बड़ी प्रसन्नता से भोजन कर पाते थे। जितने विविध पदार्थ भोग लगा करते थे, तिन सबमें प्रभु को यह अति ही नीकी लगती थी, सबसे पहिले इसी को पाया करते थे। एक दिन वहाँ एक सन्त गए, उन्होंने सब देखा, अपने जी में माना (विचार किया) कि “यह बड़ा भारी अपराध करती है," आप श्वास भरके बोले, और आपने श्रीवाइजी को बहुत प्रकार से साम्प्रदायिक प्राचार-विचार का उपदेश किया ॥ .