पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४२७

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४०८ 4 --14tatu n inten ++ 1 444IHIvandndundubord श्रीभक्तमाल सटीक । सासु कहने लगी कि "हम अब तेरे पाँव पड़ती हैं जो कहे सोई करें।" इसने उत्तर दिया कि “जब वेही (माणनाथ श्रीठाकुरजीही) मिले तभी जी सकती हूँ।" (२५४) टीका | कवित्त । (५८९) आए वाही ठौर, भौर आई, तनु भूमि गिखो, ढखो जल नैन, सुर आरति पुकारी है । भक्तिवस श्याम जैसो काम बस कामी नर, धाइ लागे बाती सो जु संग सो पिटारी है ॥ देखि पति सास आदि जगत विवाद मिव्यो “वादही जनम गयो, नेकु न सँभारी है"। किये सव भक्त, हरि साधु सेवा माँझ पगे, जगे कोक भाग घर बधू यों पधारी है ।। २०४॥ (१२५) वात्तिक तिलक। तब वे उसी नदी के तीर उसी ठिकाने आए कि जहाँ पति ने श्रीसेवा की पिटारी जल में फेंक दी थी । उस स्थान को देख के जैसा इसका हृदय हो पाया उसका अनुकथन विरहरूपी अग्नि से संतप्त प्रेमी हो सो कर सकता है । यह चकर खाकर धरती पर गिर पड़ी, आँखों से विरह के अश्रु की धारा बहने लगी बड़े भारत स्वर से अपने प्राणपति भगवान सिलपिल्ले को पुकार उठी- दो० "मिलहु मोहिं तुम आइ प्रभु, दयासिन्धु ! भगवाच ! दर्शन विनु तव दासि भव, तजन वहति है पान॥" __करुणाकर श्रीश्याम तो भक्तिप्रिय ऐसे हैं ही कि “कामिहि नारि पियारि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम", आप उसकी वह भारत टेर सुनते ही अपनी विरहिनि वियोगिनि की छाती में पिटारी (सम्पुट) समेत आ लिपटे ॥ दो० "सुनतहि अति भारत वचन, करुणानिधि अतुराइ । निकसि सरित ते गोद तिहिं, आलिपटे हरि धाइ ॥" अब कन्या के श्रानन्द की छाया ऐसी प्रतीति होती है कि-- १ "भौर"--घुमरी, चक्कर।