पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४२९

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४१.................. श्रीभक्तमाल सटीक । वात्तिक तिलक। दो वाइयों ने भक्तों (सन्तों) के लिये, अपने २ पुत्र को विष ही दे दिया, उनकी कथा अति सरस है, सो स्पष्ट करके लिखी जाती है-- (१) एक बाईजी। एक भक्त राजा था, उसके यहाँ सदैव अनेक साधु कृपाकर पाया करते थे। एक समय एक बड़े महात्मा भक्तभूप कई मूर्ति संत साथ लिए आए, उनमें राजा का विशेष अनुराग हो गया । महात्माजी नित्य वहाँ से अन्यत्र चला चाहते थे, परंतु राजा नहीं जाने देता और कहा करता कि “महाराज आज रह जाइये, कल भोर जाइयेगा।" यों ही एक वर्ष और एक महीना बीत गया। तब उन संत ने अवश्य प्रभात जाने का निश्चय ही कर दिया और अब उनके विरा- जने की अाशा टूट ही गई, तब राजा ऐसा व्याकुल हुआ कि इस सन्त विन उसके जीने की संभावना नहीं रही। रानी ने राजा से पूछकर सव मर्म जान लिया ॥ (१५६) टीका । कवित्त । (५८७) दियो सुत विष रानी, जानी "नृप जीवे नाहि, सन्त हैं स्वतन्त्र, सो इन्हैहि कैसे राखिये"। भये बिन भोर, बधू शोर करि रोय उठी, भोयगई रावले मैं, सुनी साधु भाषिये ॥ खोलिडारी कटिपट, भवन प्रवेश कियो, लियो देखि बालकक नील तनु सापिये। पूछयो भूप- तियासौं जू “साँचें कहि कियो कहा ?” कही "तुम चल्यो चाही नैन अभिलाषिय” ॥ २०६ ॥ (४२३) वातिक तिलक। राजा का जीना असंभव जान, रानी सोच विचार करने लगी, तव अंतर्यामी प्रभु ने एक अनूठा उपाय उसके मन में फरवाया किं "उसने अपने पुत्र को विष दे दिया", क्योंकि “साधु तो स्वतन्त्र हैं ही इनको और किस प्रकार से अटका रक्खू कुछ रात्रि रहते ही - "भोयगई"-व्याप गई, छागई, व्याप्त हुई । २ "रावले" अन्त.पुर रनिवास । ३ "भूए तिया"-नृपवधू रानी । ४ "साँच कहि"=यह कहके पूछा कि “साँच सांच कहो कि क्या किया" ॥