पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३०

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HINumer.44.4trethaneput mero+ +rnmen+HI Amr etter भक्तिसुधास्वाद तिलक । रानी रो उठी, अन्तःपुर में भीतर बड़ा कोलाहल तथा हाहाकार मच गया। महात्माजी ने भी शीघ्र ही कटिपट खोल डाला, रनिवास में प्रवेशकर बात पूछी, लड़के का शरीर देखा तो प्रत्यक्ष काला हो गया था। महात्माजी ने रानी से पूछा कि “जी! सच सच कहो कि तुमने यह किया क्या है ? रानी ने बता दिया कि “मापने चलना ही निश्चय किया, परन्तु हम सबकी आँखों को तो दर्शन की भारी प्यास बनी ही है, तृप्ति हुई ही नहीं।" दो० "महाराज तब गवन सुनि, जानि भूप तनुनास । मैं दै दीन्हो सुत गरल, सन्त कर जेहिवास ॥" (२५७) टीका | कवित्त । (५८६) छातीखोलि रोप किहूँ बोलिहूं न आवै मुख, सुख भयो भारी, भक्ति रीति कछु न्यारीय जानी हुन जाति, जाति पाँति को विचार कहा, अहो रस सागरं सो सदा उरधारीय हरिगुण गाय, साखी सन्तनि बताय, दिये बालक जिवाय, लागी ठौर वह प्यारीये । संग के पठाय दिये, रेहे वे जे भीजे हिये, चोले भाप “जाऊँ जोनमारि के विडारीये" ॥२०७॥ (१२२) वात्तिक तिलक। सन्त महात्माजी छाती खोलके ऊँचे स्वर से रोने लगे, इस प्रेमिनि का आश्चर्य कर्म देख आपको प्रेम जनित आश्चर्य ही दुख हुश्रा, यहाँ तक कि मुँह से स्पष्ट बात भी नहीं निकलती थी, परन्तु साथ साथ इसकी लोकोत्तर अनूठी प्रेमाभक्ति की कुछ न्यारीही रीति विचार के हृदय में अति ही आनन्द हुआ॥ . भक्तराजाजी जाति में क्षत्री से कोई न्यून ही थे यह वात सन्त ने जानी, पर विचार किया कि “मैं इनमें जातिपाँति का विवेक "रहे वे जे भीजे हिये"-देही सत यहाँ रह गए कि जिनके हृदय श्रीभगवान के प्रेमरस से भीगे थे निरस शुष्क न थे।