पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- - - - - + + + + + ++ ४१२ श्रीभक्तमाल सटीक । क्या करूँ, ये तो राजा रानी दोनों भगवत्प्रेम का समुद्र ही हृदय में धारण किए हुए हैं, इससे ये प्रेमरूपही हैं। ___ अपने संग के संतों को बुला के साक्षी करके, श्रीभगवान के अमृतरूपी गुण गाए, यहाँतक कि श्रीभगवत्-कृपा से मृतक वालक को जिला ही दिया। तब श्रीसीताराम-नाम तथा यश की “जय जय". महात्माजी को उस भक्त का स्थान अतिप्रिय लगा, जितने सन्त साथ में थे उन सबसे कहा कि "पाप लोग जाइये, मैं यहाँ ही रहूँगा" वे प्रायः सब चले गए । केवल ऐसे ऐसे कई भक्कासन्त कि जिनके अन्तः- करणरूपी वस्त्र प्रेमरङ्ग से रंगे थे, वे यह कहते हुए कि "जो आप मारके भगाइये तो भी आपको छोड़के यहाँ से हम जाने के नहीं" प्रेम में बँध के रह गए। (२) दूसरी बाईजी। (२५८) टीका । कवित्त । (५८५) । सुनौ चित्तलाई बात दूसरी सुहाई हिये, जिये जग माहि जो लौं, संत संग कीजिये । भक्त नृप एक, सुता व्याही सो अभक्त महा जाकें, घर माँझ जन नाम नहीं लीजिये ॥ पल्यो साधु सीथ सौं शरीर, दृग रूप पले, जीभ चरणामृत के स्वाद ही सों भीजिये । रह्यो कैसे जाय अकुलाय न वसाय कछू "श्रावे पुर प्यारे तव विष सुत दीजियें ॥२०८॥ (४२१) वात्तिक तिलक । अब उस दूसरी भगवत्-भक्ता पाई की वार्ता जोकि सुनने से प्रतिप्रिय लगेगी सो चित्तलगाके सुनिये, दोखए, इसने सन्तसेवा दर्शन के लिए कैसा विलक्षण यत्न किया। इससे सज्जनों को उचित है कि जबतक जगत् में जियें तबतक अवश्य सन्तों का संग करें। एक भक्त राजा साधुसेवी था, उसकी लड़की ऐसे हरिविमुख के १"जन"=प्यारे, सन्त, हरिजन । २ "नही लीजिये"=नही लेता था। ३ "भीजिय"- भीगा हुआ था, भीजा रहा करता था।