पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३२

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HAMANPOR Nivanerut भक्तिसुधास्वाद तिलक ! साथ ब्याही गई कि जिसके घर में सन्त भगवज्जन का नाम भी कोई नहीं लेता वा जानता था । इस भक्ता राजकन्या का शरीर तो साधुओं की सीथप्रसादी (जठन) से पला हुआ था, और आँखें सन्तों के रूपके दर्शनों की पली थीं तथा इसकी रसना भगवत् और सन्तचरणामृत के रस की ही रसज्ञ थी, सो इसके श्वशुरालय में यह सब अति ही दुर्लभ था, तब इससे रहा कैसे जाता, अत्यन्त व्याकुल रहा करती थी “कोउ दुख दुसह दुखद न कठिन ऐसो, जैसो कहूँ छिनक विमुखसँग रहिवो ॥" कुछ बस नहीं चलता था। एक दिन श्रीसीतारामजी के स्मरणपूर्वक विचार करने से इसको यह फुरा कि “जब हरिप्यारे संत इस ग्राम में आ तब मैं अपने पुत्र को विष दे दूं।" यह निश्चयकर इसने अपनी लौड़ी से यह कह रक्खा कि “नव इस प्राम में साधु श्रावे तब मुझसे कहियो॥" इसी से कहा है कि "विना भक्तमाल भक्ति-रूप प्रति दूर है।" (२५९) टीका ! कवित्त । (५८४) पाए पुर सन्त भाइ दासी ने जनाइ कही, सही कैसे जाइ, सुत विष लेके दियो है । गए वाके पान, रोय उठी किलकानि, सब भूमि गिरे पानि, टूक भयो जात हियो है ।। बोली भकुलाय “एक जीवे को उपाय जोपे कियो जाय, पिता मेरे कैयो बार किया है।" "कहै सोई करें" दृग भरें “ल्यावौ सन्तनि काँ', "कैसे होत सन्त ?" पूछयो चेरी नाम लियो है ॥ २०६ ॥ (१२०) वात्तिक तिलक । . रामकृपा से गाँव में साधुधों का एक वृन्द प्रा उतरा, सो टहलनी ने आके इस भक्तिवती को जनाया। तब जो पूर्व में कह पाए कि यह वाल्य अवस्था ही से सन्तों का दर्शन चरणामृत आदिक सप्रेम लेरही थी सो उसके वियोग की पीड़ा अन इससे कैसे सही जाय। इसलिए इसने अपने बालक को विष दे दिया, वह मर गया, तब सब १ "नाम लियो है"-बाह्य चिह्न आदि बता दिये।