पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४४६

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M e . . . M-Ha.0M " .NANRN-AN+ भक्तिसुधास्वाद तिलक। ४२७ दो० सदाव्रती निज चित्त में, कीन्ह्यो विमल विचार। मखो सुवन जी है नहीं, ब्यर्थ उपाधि असार ॥ (२७२) टीका । कवित्त । (५७१) बोल्यो अकुलाय "मैं तौ दियो है बताय, मोंको देवौ जु छुटाय, नहीं झूठ कुछ भाषिय” । “लेवी मति नाम साधु, जो उपाधि मेट्यौ चाहौ, जाचौ उठि और कहूँ,” मानी, छोरि नाषिये ॥ आयकै विचार कियो, जानी सकुचायो संत, बोलि उठी तिया "सुता दैक नीके राखिय" । पस्यो बधू-पाय, तेरी लीजिये बलाय, पुत्रशोक को मिटाय और खरी अभिलाषिये ॥ २२१ ।। (४०८) वार्तिक तिलक । जब भक्तजी ने कहा कि “इसी को पकड़ लो" तब वह संन्यासी अति अकुलाके कहने लगा कि "मैंने लड़के को मारा नहीं है, आपको बतायमात्र दिया है, सो भी कुछ झूठ नहीं कहता हूँ मुझको छोड़ दीजिये। भक्तजी ने कहा कि “यदि इस उपाधि से तुम छूटना चाहो तो लड़के के वध में सन्त का नाम न लो और यहाँ से टलके कहीं चले जाव । संन्यासी ने बात मान ली, तब भक्तजी ने छोड़ दिया, वह चम्पत हो गया। ___ भक्तजी मृतक शरीर को घर लाए, तदनन्तर उसकी दाहादिक क्रिया कर विचार करके अपनी धर्मपत्नी से कहने लगे कि जान पड़ता है "ये सन्त उदास हो गये हैं ।" तब परमभक्का आपकी त्री बोली कि “मेरा कहा मानिये तो सन्त को अपनी पुत्री विवाह दीजिये और सम्मानपूर्वक राखिये ।" इसकी आश्चर्य भक्ति-भरी वाणी सुनके सदाबतीजी अपनी धर्म पत्नी के चरणों में पड़के कहने लगे कि "तेरी वलिहारी जाऊँ, तूने पुत्रशोक को मिटाके अतिशय (खरी) उत्तम अभिलाषा की ॥" (२७३) टोका । कवित्त । (५७०) वोलिलियो सन्त, “सुता कीजिये जू अंगीकार, दुःख सो अपार १ "नापिय गेरिये, पटकिये, फेकिये, डारिये।