पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४४७

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४२८....... 4gd - न न -10--- + श्रीभक्तमाल सटीक । काहू विमुख को दीजियै” । बोल्यो मुरझाय “मैं तो माखौं सुत हाय । मोपे जियौहू न जाय, मेरो नाम नहीं लीजिये ॥ "देखो साधु- ताई, धरी सीस पै बुराई, जहाँ राइ हूँ न दोस कियो, मेरु समझिये।" दई बेटी ब्याहि, कहि “मेरो उर दाह मिटै, कीजिये निवाह जग माहिं, जोली जीजिय" ।। २२२॥ (४०७) वात्तिक तिलक। भक्तजी ने अपनी धर्मपत्नी का वचन अतिप्रिय मान, उस सन्त को बुलाकर प्रार्थना की, कि "इस मेरी कुमारी कन्या को आप अंगीकार कीजिये, क्योंकि किसी भक्तिविमुख को दूँगा तो मुझको अपार दुःख होगा।" आपकी विनय सुन वह साधुवेषधारी अति ग्लानि से मुरझाके बोला कि "हाय | भापके मियपुत्र को मैंने मारडाला, मुझसे जिया नहीं जाता, आप मुझ पातकी का नाम नहीं लीनिये ॥" सदाव्रतीजी उस सन्तवेषधारी को सुनाके अपनी स्त्री से बोले कि “देखो तो भापकी साधुता कि आपने यह दोष अपने माथे पर वृथा ही धर लिया, जहाँ राई भर भी दोष नहीं वहाँ मेरु पर्वत के समान अपराध अंगीकार करते हैं। मैं इस साधुता पर रीझता हूँ।" फिर विनय किया कि “मेरे हृदय कीताप मिटाने के लिये आप अवश्य कन्या को अंगीकार कर, जबतक मैं जग में जीऊँ तबतक यहाँ ही रहकर मुझे दर्शन देते रहिये, और अपनी कृपा से ही इन बातों का निर्वाह कीजिये ॥" दो “माया चाकी कील हरि, जीव चराचर नाज। तुलसी जो उबरो चहसि, कील शरण को भाज॥" निदान उसको अपनी सुता ब्याह ही दी॥ दो० “अवगुण ऊपर गुण करे, ऐसो भक्त जो कोय । ताकी पनही सिरघरौं, जब भर जीवन होय ॥" (२७४) टीका । कवित्त । (५६९) पाये गुरुघर, सुनि, दीजै कौन सर, बड़े सिद्ध. सुखदाई, साधु १ "सर"-सरवर, पटतर, उपमा ।।