पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४५

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३० भक्तमाल सटीक । दो० "जेहि के हियसर सियकमल, पावन विकसे पाय । प्रियाशरण! रघुवर भ्रमर, रहे तहाँ मँडराय । नहिं जप तप व्रत ज्ञान ते, नहिं विराग ते कोय । "उज्ज्वलरस” अधिकार वर, लली कृपा ते होय ॥ सिद्ध योगि देखे नहीं, जो थल सुर समुदाय । सीय कृपा अलिबेष धरि, सहजहिं देखहु थाय॥" निज निज सेवा द्रव्य युत, युवतिवृन्द सिय पास। रूपकला तिन मह लिये, बहु सुगन्ध सहुलास ॥ चौपाई। “सो मन रहत सदा तोहि पाहीं । जानु प्रीति रस इतनेहि माहीं॥" दो० "दिभुज श्याम दशरथ कुँवर, रामजनक कुमारि । कारण कारज ते परे, इनहि कहत श्रुति चारि ॥ सदा अवध में ध्यावहीं, गसादिक बहु रंग। बीच बीच मिथिला गवन, चहुँ कुँअरिन मिलि संग ॥ रीति भाव स्थायि पुनि, प्रणय प्रेम अरु नेह । अनूराग अस जानिये, मनो एक दुइ देह ॥ मन्द हसनि हग फेरनी, सो अनुभाव बखानु । कोकिल शब्द वसन्त ऋतु, सो उद्दीपन जानु ॥ स्थायी प्रियतम रती, नवनि प्रणय अति नेह। कर पंकज स्परस पर, वारत तन मन गेह ॥" चौपाई। "नाथ सकल सुख शरण तुम्हारे । शरद विमल विधु, वदन निहारें" इत्यादि। दो० "प्राणनाथ करुणायतन, सुन्दर सुखद सुजान। तुम बिनु रविकुलकुमुदविधु । सुरपुर नरक समान ॥ "सी" कहते सुख ऊपजे, ता" कहते तम नास। तुलसी “सीता” जो फहै, राम न बाई पास ॥"