श्रीभक्तमाल सटीक। बच्चा भी कटगया । उस दिन से दयावश में काष्ठ ही का कृपाण रखता था, इससे मेरा खङ्ग तो था दारु ही का, परन्तु भक्तवत्सल करतार ने इसको सार का कर दिया ॥” ऐसा सुन, रानाजी श्रीभुवन भक्त की सब वार्ता यथार्थ मान, भक्तियुक्त कहने लगे कि “माजसे आपको पट्टा दूना (चारलाख) दिया जाय, और आप मेरी सभा में जुहार करने तथा सेवा में कभी मत आया कीजिये, मैं ही दर्शन के लिये आपके ही घर आया करूँगा कि जिससे भवसागर से निस्तार हो जायगा ॥" अरिल्ल । "भई तलाया गोंठ जुरे जहँ चकवे । परचौ निज है, बाजु खाय दै लक्खवै ॥ परमेश्वर पति राखि, बात नहि कहन की। बिजुरी ज्यों तस्वार चमंकी भुवन की॥" (५४) “राना" के कुलदेव "श्रीचतुर्भुजजी" के पंडा श्रीदेवाजी। (२७९) टीका । कवित्त । (५६४) दरसन आयो "राना" रूप "चतुर्भुजजू” है, रहे प्रभु पोढ़ि हार सीस लपटाये हैं। वेगिदै उतारि, कर लेके गरे डारि दियो देखि धोरौं' बार, कही “धोरे' आये?" "आये हैं ॥" कहत तो कह गई, सही नहीं जात अब, “महीपति डार मारै” हरिपद ध्याये हैं "अहो हषीकेश ! करो मेरे लिए सेतकेस लेसहूँ न भक्ति” कही "किये, देखौ, बाये हैं" ॥ २२७॥ (४०२) यात्तिक तिलक । श्रीचतुर्भुज भगवान के दर्शन के हेतु रात्रि में राना प्रायः आया करता था । एकबार राना को अवेर हो गई और प्रभु के शयन का समय जानकर श्रीदेवाजी (पंडा) ने शयन करा दिया, और प्रसाद १"धौरौ"-धवल, श्वेत । "धौरे आये है ?"=केश क्या उज्ज्वल हो गये । मया बाल पक गए ? देवाजी श्रीपयहारी कृष्णदासजी के शिष्य (गृहस्थ ) थे ॥