पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४५४

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MAN- IN - - - IMAND- n naren HipHOREH..04-1Bri भक्तिसुधास्वाद तिलक । ४३५ माला लेकर अपने माथे में लपेट लिया, उसी अवसर राना दर्शन को आया, सो तो हुआ नहीं। परन्तु श्रीदेवाजी ने शीघ्रता से अपने सीस से माला उतारकर राना के गले में डाल दिया, उसमें लपटा हुया पंडा (पुजारी) जी का एक श्वेत केश चला गया, उसको देख, राना ने कुछ सकोप व्यंग वचन से पूछा कि “पंडाजी ! क्या श्री चतुर्भुजजी के केशों में शुक्लता (सफेदी) आ गई है।" श्रीपंडाजी के मुख से निकल गई कि "हाँ आ गई।” गना यह कहकर चला गया कि “कल दिन को आके दर्शन करूँगा।” पुजारीजी ने कहने को तो कह दिया, परन्तु अब अति दुःसह चिन्ता हुई कि राजा अब मुझे मारही डालेगा, परन्तु भक्त तो थे ही, इससे प्रभु के चरणकमल का ध्यान करने लगे-- दो. “सीतापति रघुनाथजी ! तुम लगि मेरी दौर । जैसे काग जहाज को, सूझत और न ठौर ॥" बारदेश में बैठ ध्यान करते हुए यह विनय करने लगे कि “हे हृषीकेश ! वाक्-इन्द्रिय के प्रेरक, अब आप मुझ दास की रक्षा के निमित्त वस्तुतः श्वेत केश धारण कीजिये । यद्यपि मुझमें आपकी भक्ति का लैश भी नहीं है, तथापि हूँ तो आप ही का ।" ऐसी अति पार्थना सुन भक्तवत्सल कृपालु की, मन्दिर के भीतर से स्पष्ट वाणी हुई ही तो सही कि “मैंने धारण कर लिये, देखो, मेरे मस्तक में धवल केश छाए हैं।" (२८०) टीका । कवित्त । (५६३) मानि राजा त्रास, दुखरासिसिन्धु बूड़यो हुतो, सुनि के मिठास- वानी, मानो फेरि जियो है। देखे सेतवार, जानी कृपा मो अपार करी, भरी आँखें नीर “सेवा बेस मैं न कियो है ॥ बड़ेई दयालु, सदा भक्तपतिपाल करें, मैं तो हौं अभक्त, ऐपै सकुचायो हियो है"। "झूठे सनबंधहू त नाम लीजै मेरोई जु", तार्तं सुख साजै यह दरसाय दियों है ॥ २२८ ॥ (४०१)