पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४५५

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श्रीभक्तमाल सटीक। 4444444444444444141m वार्तिक तिलक । श्रीदेवापंडाजी जो राजा का बड़ा भारी डर मान दुःखराशिरूपी समुद्र में डूबे हुए थे, सो इन्होंने श्रीप्रभु की यह अतिमिष्ट मृतकजियावनि वाणी सुनकर ऐसा सुख पाया कि मानो मरणशील अमृत पीके जी उठे, और फिर जब प्रभु के सीस में धौले बाल देखे तव और भी आनन्दमग्न हो अपने ऊपर सकार की अपार कृपा जान नेत्रों में प्रेमाश्रु भरके, प्रभु को धन्यवाद करने लगे कि “मैंने प्रभु की लेशमात्र भी सेवा नहीं की, परन्तु भक्तवत्सल प्रभु बड़े ही दयालु हैं, सदा अपने भक्तों का प्रतिपाल करते हैं, और मैं तो अभक्त ही हूँ, तथापि मेरी प्रार्थना से आपका कोमल हृदय संकोच को प्राप्त हुआ, पर हाँ, मैं झूठा सच्चा पापही का तो कहलाता था, सो इस सम्बन्ध से आपने यह विचार किया कि 'जो मैं इसकी अव रक्षा नहीं करूँ, तो मेरे ही नाम की लज्जा होगी अतएव सकार ने मेरे सुख का साजनेवाला यह वेष धारण कर लिया, और अपनी कृपालुता सवको दिखा दी॥" (२८१) टीका । कवित्त । (५६२) __ आयो भोर राना, सेतवार सो निहारि रह्यो, कह्यो “कैस काहू के लै पंडा ने लगाये हैं"। ऐचिलियो एक ताम, बँचिकै चढ़ाई नाक, रुधिर की धार नृपयंग छिस्काये हैं ॥ गिरयो भूमि मुरछा है, तन की न सुधि कछू, जाग्यो जामवीते, "अपराध कोटि" गाये हैं । "यही अब दंड राज बैठे सो न आवै इहाँ," अवलौहूँ आनि मानि करें जो सिखाये हैं ।। २२६ ॥ (१००) वात्तिक तिलक । राजा के मन में यह अमर्ष तो था ही कि "इस बुड्ढे (पुजारी) ने अपना पहिना हुआ हार मुझे पहिराया है," इससे प्रभात ही आकर श्रीचतुर्भुजजी के दर्शनकर श्वेतवाल देख चकित हो रहा, क्योंकि करुणानिधि प्रभु की कृपालुता उसको निश्चय तो हुई ही नहीं, अतः विचार किया कि “पंडे ने किसी के धवले केश लेकर लगा दिये हैं, इस अप्रतीति से श्री चतुर्भुजजी के समीप जाके परीक्षा के लिये उसने एक