पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४५६

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.. . at r - minatio1-1-- भक्तिसुधास्वादतिलक । ४३७ बाल उखाड़ ही तो लिया । उखाड़ने के साथ ही प्रभु ने अपनी नासिका सिकोड़ी (नाक चढ़ाई),और उससे लहू की धारा वेग से निकलकर राना के अंगों पर आ पड़ी, प्रभु के उस अपचार से राना मूञ्छित होके भूमि पर गिर पड़ा, पहर भर उसको शरीर की तनक भी सुधि न रही। जब पहर भर पीछे वह मूर्यो से जगा, श्रीसकार से अपना "बहुत भारी अपराध' कहके क्षमा कराने लगा, तब श्रीरूपचतुर्भुजी की आज्ञा हुई कि “यहाँ के राजाओं को अब यही दण्ड है कि जो राजगद्दी पर बैठा करे, अाज से वह हमारे दर्शन को न पाया करे।" इससे उदयपुर रानाके वंश में जो राजा होता है राजतिलक होने पर वह प्रभु की आज्ञा की आन मानकर अब तक श्रीचतुर्भुजजी के मन्दिर में नहीं पाता। (५५)श्रीकामध्वजजी। (२८२) टीका । कवित्त । (५६१) भए चारिमाई कर चाकरी वै रानाजू की, तामैं एक भक्त, करै बन मैं बसे है। प्राय के प्रसाद पावै, फेरि उठि जाय तहीं, कहैं "नेकु चलो तो, महीना लीजै तेरो है" ॥ "जाके हम चाकर हैं रहत हजरं सदा," "मरै तो जरावे कौन ?" "वही जाको चेरो है।" छूट्यो तन बन, राम-प्राज्ञा हनुमान आए, कियो दाइ, धुआँ लगे प्रेत पार नेरो है।। २३० ।। (३६६) वात्तिक तिलक। चित्तौरगढ़-उदयपुर में ही राना के यहाँ इन चारों भाइयों की चाकरी लिखी थी, महीना पाते थे, परन्तु तीन भाई तो सना की सेवा में उपस्थित होते थे, पर एक चौथे कामध्वजजी श्रीसीतारामजी के अनन्य भक्त थे, ये वन ही में भजन करते हुए निवास करते, केवल प्रसाद पानमात्र को घर आ जाया करते, और प्रसाद पाके फिर वहीं वन ही १"हजुर"--- हुजूर, सम्मुख, वर्तमान, उपस्थित । २"नेरो"=निकट, समीप ॥