पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४५७

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OMBARALt-41 .44 - 4- 41 . H 4 - - - - - ++ ++ 444 . dafon श्रीभक्तमाल सटीक । में चले जाया करते थे। तीनों कहा करते कि “भला तुम तनक एक बेर तो रानाजी को जोहार कर पाया करो, क्योंकि तुम्हारी चाकरी का महीना भी हम लोग वहाँ से लाया करते हैं, न जायोगे तो कैसे मिलेगा?” यह सुन श्रीयुत कामभ्वजजी ने उत्तर दिया कि “मैं जिस प्रभु का चाकर हूँ उसी की सेवा में सदा निकट रहता हूँ।" तब भाइयों ने सक्रोध होके कहा कि तु “जब मरेगा तो तुझे जलावेगा कौन ? (हम तो न जलावेंगे)।" आपने छूटते ही (शीघ्र ही) उत्तर दिया कि "जिसका यह दास है सोही जलावेगा।" निदान, श्रापका शरीर वन में ही छूटा, और उसी क्षण कृपानिधान श्रीसीतारामजी की आज्ञा से श्रीकपिनाथ हनुमानजी आकर चन्दन की लकड़ी की चिता बनाके यथेष्ट दाह-क्रिया कर उनको दिव्य रूपसे श्रीरामधाम को ले गए। वरंच चिता के समीप में वृक्षों पर जो बहुत से प्रेत रहते थे सो वे सब प्रेत, अापके शरीर का धुवाँ लगने से प्रेतयोनि से मुक्त होकर शुभगति को प्राप्त हुए। किन्तु एक प्रेत उस घड़ी वहाँ उपस्थित न था, पाने पर अपने सजातियों को न देखकर, किसी एक भूर्ति से उसने सब वार्ता सुनी और उसी चिता की भस्म में लोटपोटकर प्रेतत्व से छूट शुद्ध हो सद्गति पाई ॥ (५६) श्रीजयमलजी। (२८३) टीका । कवित्त । (५६०) "मेरते" प्रथम बास, "जैमल" नृपति ताकौं सेवा-अनुराग नेकु खटको न भावहीं । करै घरी दस, तामैं कोऊ जो खबरि देत, लेत नहीं कान, और ठौर मरखावही ॥ हुतो एक भाई बैरी, भेद यह पाई लियो कियो प्रानि घेरौ, माता जाइक सुनावहीं । “करैं हरि भली,"प्रभु घोरा असवार भए, मारी फौज सब, कहैं लोग सचुपावहीं ॥२३१॥(३६८) १ "खबरि" खबर - समाचार, जताना, जाके सुनाना । २ "असवार" -सवार, अश्वारूढ । ३ "फौज" cr=सेना ॥