पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४५८

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Amernamamimaran.me भक्तिसुधास्वाद तिलक । वात्तिक तिलक । . हरिभक्तराज श्रीजयमलसिंहजी का, प्रथम "मेरता" नगर में निवास था, भगवत् की सेवा-पूजा में इनका ऐसा पकान अनुराग था कि उसमें किंचित् भी खटका होने से क्लेश मानते थे, और दस घड़ी पर्यन्त नियम से पूजा करते थे, इस समय के बीच में जो कोई किसी प्रकार की वार्ता जनावे तो आप उसको श्रवण नहीं करते, वरंच उसी ठाँव वह मारा जायगा ऐसी श्राज्ञा दे रक्खी थी। आपके इस नियम का भेद थापके एक वैरी भाई ने जानकर उसी समय के प्रारंभ में बहुत सी सेना लेकर नगर को आ घेरा, और तो कोई आपके पास समाचार जताने को जा सका नहीं, परन्तु आपकी माताजी ने प्राके उस दुष्ट को घेर लेना आपको सुना दिया। सुनकर भक्तराज श्रीजयमलजी ने इतनी ही बात कही कि "श्रीहरि भली करेंगे" और उसी प्रकार सेवा-पूजा में ही लगे बने रहे। तब शत्रुसूदन भक्तवत्सल श्रीमभुजी जयमलसिंह के घोड़े पर चढ़ अस्त्र-शस्त्र ले सब सेना को मार, उस शत्रु को भी घायल कर गिराक, घोड़े को अश्वशाले में बाँध भाप अन्तधान हो गए । और प्रभु की इस कृपालुता कर्तव्यता को देख लोगों ने आके कहा कि वैरी की सब सेना मारी हुई पड़ी है। यह सुन सब सचु (सुख) को प्राप्त हुए। (२८४) टीका । कवित्त । (५५९) देखे हाँफै घोरो, “अहो ! कौन असवार भयौ ?” गयो आगे जबै, देख्यो वही वैरी पखो है । बोल्यो सुखपाय “अजू ! साँवरो-सिपाही को है ? एकले ही फौज मारी, मेरो मन हखो है ॥” तोही को दिखाई दई, मेरे तरसत नैन !" बनन सों जानी वही स्यामप्रभु ढखो है। पूछिकै पठाय दियौ, वा नै पन यह लियो, कियो, इन दुःख, करै भली, बुरो कसा है ॥२३२॥ (३६७) बात्तिक तिलक। अपना नियम पूजा समाप्तकर उठके वस्त्र शस्त्रादि से सुसज्जित हो,