पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४५९

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ma श्रीभक्तमाल सटीक। निकलकर, श्रीजयमलजी ने अपना घोड़ा मँगवाया, देखें तो वह घोड़ा अत्यन्त श्रमित होकर पसीने से भरा हॉफ रहा है । देखकर आपने पूछा कि “इस घोड़े पर चढ़ा कौन था?" पर किसी ने कुछ उत्तर नहीं दिया क्योंकि कोई इसका मर्म जानता ही न था ॥ फिर आप वैरी की सेना की ओर भागे जाके देखें तो वही शत्रु घायल पड़ा हुआ है । परन्तु प्रभु के दर्शन के सुख-युक्त उसने श्री जयमलजी से पूछा कि "अजी महाराज ! आपके यहाँ वह साँवला सा सुभट वीर कौन है ? कि जिसने अकेले ही सब सेना (फौज) मारडाली और मुझे घायलकर अपनी सुन्दरता से मेरा मन हर ले गया।" दो० "सियपिय वदन भदोष ससि, अलकावलि युग नाग। नयन विशेष कटाक्ष शर, सखि मोरे हिय लाग॥" उसके वचन सुन, आप बोले कि "उन श्यामसुन्दर सुभट ने तुम्ही को दर्शन दिया, मेरी तो घाँखें तरस ही रही हैं ।" - अापके वचनों से उस शत्रु ने जाना कि “अहो हो। वे तो स्वयं प्रभु ही थे जिन्होंने कृपाकर इनकी रक्षाहेतु भाके ऐसा पुरुषार्थ किया ॥" . श्रीजयमलजी ने उससे पूछा कि तुम्हारी क्या इच्छा है ? उसने कहा कि "मैं अपने घर जाया चाहता हूँ" आपने कृपाकर उसको पालकी में चढ़ाकर उसके घर पहुँचवा दिया। अपनी दुष्टता की ग्लानि से दुःखित हो उसने विचारा कि “देखो, प्रभु के भक्त ऐसे होते हैं कि मैंने तो उनसे ऐसी दुष्टता की, और उन्होंने मेरे साथ ऐसी भलाई की।" फिर वह भी श्रीजयमलजी की नाई पूजन का पन ले सपरिवार भक्त हो गया। (५७) एक ग्वालभक्तजी। (२८५) टीका । कवित्त । (५५८) । भयो एक ग्वाल, साधुसेवा सो रसाल करे, परै जोई हाथ लेके सन्तन खवावहीं । पायो पक्वान बनमध्य, गयो ख्वाइबेकौं, प्राइवे