पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४६०

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.4 -1. MMS + +"- +IImandu0 0 - . Mind . .. 4 -40+APNA. Cutudan414 भक्तिसुधास्वाद तिलक । की ढील, चोर भैंस सो चुरावहीं । जानिकै छिपाई बात मातासौं बनाइ कही, "दई विप्र भूखौ, घृतसंग फेरि पावडी" दिन हो दिवारी को सु उन्हि पहिरायौ हाँस, आइ घर जाम लिये राँभके सुना- वहीं ॥ २३३ ॥ (३६६) वात्तिक तिलक। किसी उत्तम ग्राम में ग्वाल जाति के मध्य एक भगवद्भक्त हुए, वे बड़ी रसीली साधुसेवा किया करते थे, कि जो कुछ भोजन का अच्छा पदार्थ हाथ लगता था सो सन्तों ही को खिला देते थे। एक दिवस वन में भैंस चरा रहे थे, किसी तिथि उत्सव संयोग से इन्हीं के घर से अच्छे २ पकवान उनके पास पहुंचे, सो आपने तो पाए नहीं, लेके समीपस्थ किसी साधु को पचाने के लिये ले गए, और भैंसे वहाँ ही छोड़ गए, पाने में जितना विलम्ब हुश्रा उसी अन्तर में चोर भैंसों को चुराके हाँक ले गये। आपने आके देखा हूँढा तो भैसे मिलीं नहीं, भक्तजी ने जान लिया कि भैंसों को चोर ले गए। परन्तु घरवालों के भय से उस वार्ता को छिपाकर माता से बात बना दी कि “माई। मैंने भैसें एक भिक्षुक भूखे ब्राह्मण को दे दी हैं, वह माठा खायेंगे और घी सहित भैंसें फिर दे जायँगे।" कुछ दिन के अनन्तर जब दीपावली (दिवाली) का दिन आया, उस दिन चोरों ने भैंसों को उत्साह से चाँदी की इंसुलियाँ पहिनाई, तब अपने भक्त की वाणी सत्य करनेवाले तथा भैंसों के प्रेरक प्रभु की प्रेरणा से भक्तजीकी भैंसें उसके घर की भैंसों को भी साथ ले भगी, और श्रीग्वाल भक्तजी के घर पर सबकी सब आकर खड़ी हो भाने (शब्द करने) लगीं। श्रीभक्तजी ने देखकर कहा कि “माता! देखो. असे आ गई, और घी वेंच के रुपयों की हसुलियाँ भी बन- वाके ब्राह्मण देवता देकर चले गये।” श्रीसाधुसेवी भक्त की गिरा सत्यकारी भगवान की जय ॥ "अरुण मृदुल येई पदपंकज त्रिविध ताप दुखहरण हमारे ॥"