पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४६९

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श्रीभक्तमाल सटीक । (२९४) टीका । कवित्त (५४९) गए ढिग गाँव कही 'नेकु तो चिताँव' रहे चितएतें ठाढ़े दियो मृदु मुसकायकै । “ल्यावो जू बुलाय", कह्यो आय "देखो आए आप" सुनतहि चौकि सब ग्राम श्रायो धायकै ॥ वोलिक सुनाई साष, पूजि हिये अभिलाष, लाख लाख भाँति रंग भलो उर भाय- कै। श्रायो न सरूप फेरि, विनै करि राख्यो घेरि, भूप सुख टेरि दियो अवलौ बजायके ॥ २४१॥ (३८८) वार्तिक तिलक । जब गाँव के पास पहुंचे तो भक्तराजजी ने अपने मन में कहा कि "तनक देख तोलू" देखते ही श्रीवनमाली गोपालजी वहीं खड़े रह गये, और मधुर मुसक्याय कर कहा कि "उन लोगों को यहीं बुला लाओ ।। गाँव के भीतर आकर आपने कहा कि “देखो श्रीसाक्षीगोपालजी कृपाकर के गाँव के बाहर आ विराजे हैं" सुनते ही चौंककर सब ग्राम- वासी दौड़कर प्रा टूटे। श्रीगोपालजी बोले, और सुन्दर साक्षी दी। युवा ब्राह्मणजी का अभिलाष पूरा हुआ हृदय में लाख लाख प्रकार से प्रेम छा गया। श्रीगोपालजी की वह प्रतिमा श्रीवृन्दावन को लौट नहीं गई, वरन् वहाँ के राजा तथा और प्रेमियों ने श्रीसाधीगोपालजी को अपने विनर बल से धर कर वहीं रक्खा ॥ सब सुखी हुए । और यह बात विदित है ही कि उड़ीसा देश में आज तक श्रीसाक्षीगोपालजी विराजमान हैं। विनय "कोशलपाल कृपाल कल्पतरु, द्रवत सकृत सिर नाए ।।" (६१) श्रीरामदासजी। (२९५) टीका । कवित्त । (५४८) द्वारिका के ढिग ही डाकोर एक गाँव रहे, रहे रामदास भक्त भाक्ति या को प्यारियै । जागरन एकादशी को स्नछोरे जू के भयो तन, वृद्ध, आज्ञा दई नहिं धारि यै ॥ बोले भार भाय “तेरी