पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४८४

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mai + H e + nde +in भक्तिसुधास्वाद तिलक । है कि इसके श्रवण से श्रीहरिपदपद्म में भक्ति होती है । श्रीऊर्ध्वपुण्डू न्या श्रीतुलसीजीकी कराठी माला जिनके देखते थे, उनको ये बड़भागी अनुरागी महीपजी सर्वथा श्रीगुरु और श्रीहरि के समान जानते थे, पढ्दर्शनी से भाव नहीं रखते थे भागवतों से सबको घट के मानते थे। भाँड़ों ने देखा कि, इस राजा के यहाँ हमारी तो पूछ-पाँच कुछ नहीं, कण्ठी और खड़े तिलकवालों का ही यहाँ सम्मान है, इससे भाँड़ भागवत साधुओं का भेष हँसी हित धारण कर राजा के यहाँ पहुँचे, महाराज का यह प्रेम नेम हद था कि भेष के चरण अपने हाथों से धो लेते थे, अतः उन भाँड़ों को भी कराना पड़ा । भाँड़ों को हंसभेष के प्रभाव, और भागवतवर के दर्शन तथा स्पर्श से श्रीसीतारामीय भेष में भक्ति दृढ़ हो आई इन भक्तभूप की कथा सुनने से किस अधिकारी के चित में भक्ति न उपजेगी ?॥ (३११) टीका । कवित्त । (५३२) राजा भक्तराज डोम - भाँड़ को न काज होय, भोय गई, “या को धन हरी को न दीजिये। आए भेष धारि खै पुजाय नाँचै दें कै तारि नृपति निहारि कही यों निहाल कीजिये ।। भोजन कराये भरि मुहरनि थार ल्याय आगे धरि बिनय करी "अज यह लीजिये।भई भक्ति रासि बोले "आवै वास, भावै नाहि, बाँह गहि, रहै "कैसे चले मति भीजिये ।। २५५ ॥ (३७४) वात्तिक तिलक । एक राजा भक्तराज था। इसके यहाँ भगवत् भेषधारी को छोड़ डोम (गानेवालों) और भाड़ों को कुछ नहीं मिलता था, हरिभक्त राजा समझता था कि धन श्रीहरि का है, दूसरों को नहीं देना चाहिये । भाँड़ लोग सन्तों का भेष करके श्राए । पाँव पुजवाके, ताली बजा बजाके श्रीठाकुरजी के सामने नाचे । राजा ने देखकर कहा "श्राप सबने मुझे निहाल कर दिया ।" भूप ने उनको प्रेम से भोजन । किसी ने कहा है-दो०-जोगी , जगम २, सेवड़ा ३. सन्यासी ४, दर्वेप ५ 1 छटएँ दर्शन विप्र ६ को, जामे मीन न मेप ॥१॥