पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४८५

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mmm...m 1+IN .+rek श्रीभक्तमाल सटीक । mm. कराया, थाली में स्वर्णमुद्रा भर आगे ला रखकर विनय किया कि “यह in. अंगीकार कीजिये।” श्रीहरिकृपा से उनको बड़ी भक्ति उत्पन्न हुई, भेष सदा धारण किये ही रहे, धन की वासना जाती रही, वे कहने लगे कि "इसमें से दुर्गन्ध आती है, हमको भला नहीं लगता है, हम लोग जाते हैं।" राजा ने उनके हाथ पकड़के कहा कि "क्यों चले ? कृपा करके रहिये।"वे यह कहते चले गए कि "अब साँची भीति भेष और भजन में हुई, अब वैराग तथा अनुराग ही में मति पग गई ॥" ___ (३१२) छप्पय । (५३१) अन्तरनिष्ठ नरपाल इक, परम धरम नाहिन धुजी॥ हरि समिरण हरि ध्यान आन काह न जनावै । अलग न इहि बिधि रहै, अंगना मरम न पावै ॥ निद्राबस सो भूप बदन तें नाम उचायो। रानी पति पर रीझि, बहुत बसु तापर वायो ॥ऋषिराज सोचि कह्यो नारि साँ, "आज भक्ति मेरी कजी।"* अन्तरनिष्ठ नरपाल इक, परम धरम नाहिन धुजी ॥ ५७॥ (१५७) (६६७०) एक अन्तनिष्ठ राजर्षि तथा इनकी रानी। एक राजा अन्तनिष्ठ (गुप्त) भक्त परम भागवत था । उसके बाह्य में फहरानेवाली ध्वजा नहीं थी, अपनी हरिभक्ति हरिस्मरण हरिध्यान प्रकट होने नहीं देता था। वह इस प्रकार से रहता था कि इसकी धर्म- पत्नी भी इसकी भक्ति का मर्म नहीं पाती थी, अतएव यह उदास सी रहा करती थी। नृपति से निद्रा में श्रीविहारीजी का नाम उच्चारण हुआ । इससे "कजी" जाती रही, कला होगई, चूक गई।