पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४८७

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४६८ 4 + + + M . M H -+ - -- श्रीभक्तमाल सटीक । नेम चला गया, वैसे ही जीव भी शरीर से निकल जावे तो भला है।' ऐसा विचार करने लगा, ऐसा ही हुधा ॥ (३१४) टीका । कवित्त । (५२९) देखि तन त्याग पति, भई और गीत याकी, “ऐसे रतिवान मैं न भेद कछू पायो है।" भयो दुख भारी, सुधि बुधि सब दारी, तब नेकु न विचारी, भावराशि हियो छायो है ॥ निशिदिन ध्यान, तजे विरह प्रवल पान, भक्ति रस खान, रूप का जात गायो है। जाके यह होय, सोई जाने रस भोय, सब डार मति खोय, यामैं प्रगट दिखायो है ॥२५७॥ (३७२) वात्तिक तिलक। जब रानी ने देखा कि पति ने शरीर त्याग कर दिया तो इसकी और ही दशा हुई, अतिशय दुःखित हो सुधि बुधि खो, पछताने लगी कि "महाराज श्रीसीतारामकृपा से ऐसे भावराशि भक्तराज थे, पर कैसे खेद की बात है कि यह मर्म मैं तनक नहीं विचारती जानती थी।" जैसे राजर्षि की मति गति रही, वैसी ही श्रीभगवत् कृपा से रानी भी दिनरात ध्यान में रहने लगी, ॐ यहाँ तक कि प्रबल विरह में प्राण छोड़ दिया। भक्तिरसलानि का स्वरूप, और मति, रति और गति को कौन बखान सकता है ? श्रीभक्ति महारानीजी जिस पर कृपा करती हैं सोई रसिकजन इसको कुछ कुछ समझ सकते हैं, और केवल विद्याबुद्धि का यहाँ पता नहीं रहता॥ इन बातों को इस दम्पति-कथा में प्रगट देख लीजिये ।। (३१५) छप्पय । (५२८) गुरु गदित बचन शिष सत्य अति, दृढ़ प्रतीति गाढो गह्यो।अनुचर आज्ञा माँगि कह्यो “कारज कों सोरठा ग्कली भली दिन चारि, जब लगि मुख भूदे रहै। देत डार से डारि, फूलिबो सहै न फूल को।'