पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४९७

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+ 44- 1. hndme.MMAHIMAHANI - - -. -. ..-10 +in+ ४७८................. श्रीभक्तमाल सटीक। विराजे प्रभु, पढ़े वेद वानी, पै न आये, यह नई है । “पतित पावन नाम कीजिये प्रकट ग्राजु" गायो पद गोद आई बैठे भक्ति लई है॥२६६॥ (३६३) वात्तिक तिलक । चित्तौरगढ़ में “झाली" नाम की एक रानी रहती थी। श्रीहरि- नामोपदेश से इसका कान पवित्र नहीं हुधा था (मन्त्र नहीं पाया था) वह श्रीकाशीजी भाके श्रीरंदासजी महाराज से शिष्य हुई। जो ब्राह्मण लोग रानी के साथ थे, यह सुनके उनके तन में आग सी लग गई, विचार उनके कुछ नहीं रहा, राजा के भागे ब्राह्मणों की भीड़ पहुँची। राजा ने श्रीरदासजी को भादर से बुलाया। सभा हुई यद्यपि विवाद में ब्राह्मण नहीं जीते पर ब्राह्मणों ने माना नहीं तर यह ठहरी कि ऊँचे सिंहासन पर श्रीभगवत् की मूर्ति (जिनकी ब्राह्मण लोग पूजा किया करते थे) विराजमान कराई गई और यह वात ठहरी कि जिनके बुलाने से श्रीठाकुरजी पास चले श्रावें उन्हीं को पूजा सेवा इत्यादि सव कुछ का अधिकार जानना चाहिये ॥ ब्राह्मण लोग एक एक करके तथा वृन्द के वृन्द मिलकर पहरों वेद ऋचाओं से स्तुति करते मन्त्र जपते रहे, परन्तु मूर्ति मूर्ति ही बनी रही, और जब श्रीरदासजी ने कहा कि "विलम्ब छाडि आइये, कि तो बुलाइ लीजिये। पतित पावन नाम प्रापनो शीघ्र साँव कीजियै ॥" तो सभा के सामने सबके देखते श्रीभक्तवत्सल ठाकुरजी श्रीरदासजी की छाती में आ लगे, जय ! जय ।। शब्द की ध्वनि हो उठी। श्रीभाक्ति महारानीजी की जय ॥ (३२६) टीका । कवित्त । (५१५)... गई घर झाली पुनि बोलिके उठाये, “अहो जैसे प्रतिपाली अव तैसें प्रतिपारिय”। आपुहू पधारे, उन बहु धन पट वारे, विप्र सुनि पाँच धारे, सीधौदै निवारियै ॥ करिके रसोई दिज भोजन करन बैठे देदे माघि एक यों रैदासकों निहारिये । देखि भई आँखै, दीन भाष सिख लाखै, भये स्वर्ण को जनेऊ कादयो त्वचा कीनी न्यारियै ॥२६७॥ (३६२)