पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४९९

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४८० श्रीभक्तमाल सटीक। वार्तिक तिलक । जगद्विख्यात श्री १०८ कनीरजी ने चार वर्ण, चार आश्रम, कदर्शन, किसी की यानि कानि नहीं रखी । केवल श्रीभक्ति (भागवतधर्म) को ही दृढ़ किया। भक्ति के विमुख जितने धर्म, उन सबको "धर्म" ही कहा है । सच्चे जी से सप्रेम भजन (भक्ति, भाव, बन्दगी) के बिना तप, योग, यज्ञ, दान, व्रत सबको तुच्छ बताया है। आर्य अनार्यादि हिन्दू, मुसलमान दोनों को प्रमाण सिद्धान्त बातें सुनाई हैं। चौपाई। "धर्म एक एकहि बत नेमा । काय वचन मन प्रभु पद प्रेमा॥" अपनी बीजक अर्थात् "स्मैनी, शब्दी, साखी" में किसी मत की सुहाती (खुशामद) और मुँह देखी नहीं कही है किसी का पक्षपात श्रापके वचनों में नहीं है, "अन्तःकरण में कुछ और, और बघारना मुंह से कुछ और इसको बहुत ही बुरा बताया है । हिन्दू, मुसलमान सबके हित की ही बात बखानी है। श्राप प्रेमा दशा में बारूद थे॥ (३२८} टीका । कवित्त । ( ५१५ ) अति ही गंभीर मति सरस कबीर हियो लियो भक्ति भाव, जाति पाँति सब टारिये । भई नभ वानी "देहतिलक रमानी करो, करो गुरु रामानन्द गरें माल धारिय" | "देखें नहिं मुख मेरो मानिक मलेछ मोको," "जात न्हान गंगा कही मग तन डारिय" । रजनी के "वर्णाश्रम षट दर्शनी"1 (छप्पय ५६ देखिये ) | Turkey टर्की : रूम के रहनेवालो को "तुर्क - "कहते है, तुर्क प्रायः भुसलमान होते ही है, अतः "तुर्क" मुसलमानो को कहते है । श्रीकबीरजी महाराज ने हिन्दुओ के लिये "राम" तथा मुसलमानो के लिये ) "रहीम" ( दयालु ), नाम को, सच्चे दिल तथा निष्कपट प्रेमभक्ति से कहने का उत्साह बढाय है प्रेम भक्ति रहित मिथ्या और केवल दिखाऊ आडम्बरी पर "मुलना" तथा "पॉडे अर्थात् मौलाना और पण्डितो को बहुत धिक्कारा है। • रीबों के महाराज विश्वनाथसिंहजी की टीका "रमैनी" पर है सो देखने योग्य है।