पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५००

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--11M . M- 14+Ma+Na+ampainment भक्तिसुधास्वाद तिलक। ................४८१ शेष में आवेश सों चलत आप, परे, पग राम कहै मंत्र सो विचारियै ।।२६८॥ (३६,३) वात्तिक तिलक। श्रीकवीरजी की मति अति गंभीर तथा अन्तःकरण श्रीभक्तिरस से सरस था, भाव भजन में पूरे, जाति पाँति वर्णाश्रम इत्यादि साधारण धमाँ का आदर नहीं करते थे। लड़कपन ही में प्राकाशवाणी हुई कि "कबीर। अपने शरीर में (स्मानी वा रामावत् अर्थात् रामानन्दी) तिलक रमाके गले में तुलसी- जी की माला धारण करके, रामानन्दजी का शिष्य हो।"आपने प्रार्थना की कि “प्रभो । स्वामी श्रीरामानन्दजी यदि मुझको तुर्क (मुसलमान) मानकर मेरा मुँह भी नहीं देखें तो?" तो आज्ञा हुई कि "रामानन्दजी गंगा स्नान को जाया करते हैं, तुम मार्ग में जा पड़ो।" रात्रि के पिछले पहर में स्वामी श्रीरामानन्दजी के मार्ग में जा, देख- भालके, ये पड़ रहे । श्रीसीतारामनामस्मरणावेश में श्रीस्वामी महाराज श्रीगंगातट पर चले जा रहे थे, अचानक प्रभु का दक्षिण चरणकमल इनकी छाती पर ज्योंही पड़ा त्योहा इधर श्रीस्वामीजी ने राम राम !! कहते हुए पाँव सँभाल लिया, और उधर अति आनन्द में भरे श्रीकवारजी ने श्रीगुरुमुख से महामन्त्र ("राम, राम") पा उसी को उपदेश मान सुख में मग्न राम राम रटते जपते, अपने घर पहुँचे। आकाशवाणी बारा आज्ञा के लिये श्रीयुगल सर्कार का अनेक धन्यवाद कर उस रंग में रंग गए ।। "सीतापति के भजन बिन, राजा परजा सब अफल । तत्त्ववेत्ता तिहुँलोक में, राम रटै ते नर सुफल ॥" (३२९) टीका । कवित्त । (५१४) __ कीनी वही वात माला तिलक बनाय गात मानि उतपात मात सोर कियो भारियै । पहुँची. पुकार रामानन्दजू के पास प्रानिकही