पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५०३

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......... M A HARAIMInHerbar+ HHHOMMriwHAMNAMAninind .. श्रीभक्तमाल सटीक। वात्तिक तिलक । कवीरजी की माता और स्त्री-पुत्र श्रापकी बाट जोह रहे थे कि कपड़ा बेचकर हाट से कुछ लावें तो भोजन होय । परिवार उधर इस प्रतीक्षा में था और इधर श्राप यह सोचकर कि "छुछा हाथ घर क्या जाऊँ" पैंठ से ही वन में जा छिपे । श्रीसुजानशिरोमणि सक्तवत्सल महाराज कृपानिधान श्रीरामजी को इनके घर के लोगों का सोच पड़ा जव तीन दिन बीत गये तो सार व्यापारी के सेप में दलों पर श्राटा, घी, चीनी इत्यादि लदवाये हुए लाकर श्रीकवीरजी के घर दे गये। माता चिल्लाने लगी कि यह संव सामग्री मुझ दरिद्र के घर न पटको कोई राज्याधिकारी वा कोतवाल पकड़े बाँधेगा दंड करेगा। मेरा लड़का कवीर किसी अनजाने की एक कौड़ी नहीं छूता है, पर व्यापारी ने कहा कि कुछ भय नहीं ॥ (३३२) टीका । कवित्त । (५११) . गये जन दोय चार, ढूंढिक लिवाय ल्याये, आये घर सुनी बात, जानी प्रभु पीर कौँ । रहै सुख पाय कृपाकरी रघुराय, दई छिनमैं लुटाय सब बोलि भक्त भीर कौं॥ दियो छोड़ि तानो बानौ, सुख सरसानी हिये, कि ये रोस धाये सुनि विप्र तजि धीर की। क्योरे तुं जुलाहे । धन पाये, न बुलाये हमैं ? शूद्रनि को दियो जावौं कहैं यों कबीर कौं ॥२७२॥ (३५७) वात्तिक तिलक । दो चार जन जाकर श्रीकवीरजी को ढूढ़ लाये, घर पहुँच आपने सब वार्ता सुनी और समझा कि श्रीसकार ने मेरे लिये यह कष्ट उठाया है। श्रीरघुनाथजी की कृपा को धन्यवाद कर श्रीसीतारामजी को, भोग लगाकर संतों भक्तों को क्षणमात्र में सबका सब पवाय दिया, ताना बाना कपड़ा बिनना छोड़कर श्रीसार के भजन में लगे। यह नित्य का उत्सव देखि ब्राह्मणों को धैर्य न रहा क्रोध कर आये और बकने लगे-“रे जोलाहा! तूने धन पाया, बैरागियों को जो शुद्र हैं बुला बुलाकर खिलाया, और हम ब्राह्मणों को पूछा भी नहीं।"