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भक्तिसुधास्वाद तिलक

(३३३) टीका । कवित्त । (५१०)

क्याज, उठि जाऊँ ? कछु चोरी धन ल्याऊँ, नित हरि गुनगाऊँ कोऊ राह मैं न मारी है। "उनिकों लै मान कियो याहि मैं अमान भयौ, दयो जोपै जाय हमैं तो ही तो जियारी है।।""घर मैं तो नाहिं मंडी जाहिं तुम रही बैठे,"नीठिकै छुटायौ पेडो, विपेव्याधि दारी है। आये प्रभु श्राप द्रव्य ल्याये समाधान कियो लियो सुख, होय भक्त कीरति उजारी है ॥२७३ ।। (३५६)

बातिक तिलक।

श्रीकबीरजी ने कहा कि मैं डाका नहीं देता हूँ, धन चुराके नहीं लाता हूँ घर बैठे श्रीराम गुन गाता हूँ, क्या यहाँ से उठकर चला जाऊँ? आपको देने को धन अब कहाँ से लाऊँ ?" ब्राह्मणों ने कहा कि तूने बैरागियों शूद्रों का मान किया इससे प्रत्यक्ष हम सब ब्राह्मणों का अना-दर और अपमान है, जो तुझसे दिया जाय तो हमको दे, तवही हमारा जीवन ठीक है।" श्रीकवीरजी ने यह कहके उनसे बड़ी कठिनाई से थपने प्राण बचाए और उस व्याधि को टाला कि “आप सब यहीं ठहरिये मैं जाता हूँ पैंठ (हाट) से कुछ लाता हूँ, क्योंकि घर में तो कुछ है नहीं" और हाट की ओर चलके वाट में कही श्राप छिप रहे ।

प्रभु ने भाएके रूप में स्वयं आके द्रव्य अन्न दे देके ब्राह्मणों का सम्मान किया, सकार ने इसमें सुख माना कि मेरे भक्त (कवीरजी) की कीर्ति उज्ज्वल रहै। श्रीकाशीजी भर में श्रीकवीरजी का सुयश छा गया।

(३३४) टीका । कवित्त । (५०९)

ब्राह्मण को रूपधरि आये लिपि बैठे जहाँ, “काहे कौं मरत भौन

छजावो ज़ कबीर के । कोऊ जाय द्वार ताहि देत है अढ़ाई सेर, बेर जिन लावो, चले जावौ यों बहीर के॥"श्राये घर माँझ देखि निपट मगन भये, नये नये कौतुक ये कैसे रहै धीर के । वारमुखी लई संगमानौवाही रंग रंगे, जानी यह बात करी डर अति भीर के ॥ २७४ ॥ (३५५)

पाठान्तर "भूख"