पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५२०

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MiamarMartiane भक्तिसुधास्वाद तिलक । (३५१) टीका । कवित्त । (४९२) अभू लगि जाश्रो घर, कैसे कैसे प्रा डर बोली "हरि! जानिये न भाव पै न पायो है"। लेतहाँ परिच्छा, मैं तौ जानी तेरी सिच्छा ऐपै, सुनि दृढ़ बात कान अति सुख पायो है" || चले मग दूसरे, सु तामैं एक सिंह रहै, पायौ बासलेत, शिष्य कियो, समझायो है। आए और गाँव, सेषसाई प्रभु नाँव रहै, करे बाँस हरे, ढरे "चीधर" सुहायो है ॥ २६ ॥ (३३६) वात्तिक तिलक । श्रीपीपाजी ने सीतासहचरीजी से कहा कि "देखो ! कैसे कैसे उपद्रव खड़े होते हैं, तुम अब भी घर फिर जावो आपने उत्तर दिया कि हे हरि । यह दासी तो कदापि पीछे पग देने की नहीं, आपने ठीक विचार नहीं किया है, मेरे निमित्त आपने कौन सा उद्योग किया है ? और श्रीयुगल सरि ने किस श्रापत्ति की शान्ति नहीं की है ? तब श्रीपीपाजी ने मुसकाके कहा “मैं केवल तुम्हारी परीक्षा लेता था, तुम्हारी समझ बूझ को मैं जानता हूँ, तुम्हारी दृढ़ता देख समझ सुनके मैने अतिशय सुख पाया॥ दो. “पीपाजी तब इसि कह्यो, लई परीक्षा तोरि । ते तो श्रीरुक्मिणि सखी, तोहि तजे बड़ि खोरि ॥" उस मग को तज, दोनों मूर्तियों ने दूसरा पथ पकड़ा, कुछ आगे बढ़, एक सधन विपिन में एक बड़े सिंह के गरज की प्रतिध्वनि सुनी जो मनुष्यों की बास पाके टोह लेता हुआ इन दोनों की ओर श्रा निकला । परन्तु इन पर दृष्टि पड़ते ही वह मृगराज बकरी के सदृश अधीन हो श्वान की नाइ पूँछ हिलाने लगा। चौपाई। "पीपा ताके निकट सिधारेउ । देह तेहि मंत्र, माल गर डारेउ ॥" सिंह को उपदेश और शिक्षा. दे, समझा बुझा, एक गाँव में पाये जहाँ शेषसाई नाम प्रभु के दर्शन किए। एक जगह कोई मनुष्य लाठी वेच रहा था, उससे एक लाठी