पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५२२

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nantrvasna भक्विसुधास्वाद तिलक। (३५३) टीका ! कवित्त । (४९०) ... पूछ “कहो बात, ए उघारे क्यों हैं गात," कही "ऐसेही विहात, साधुसेवा मन भाई है। आवें जब सन्त सुख होत है अनंत, तन ढक्यो, के उधारो ? कहा चरचा चलाई है। जानिगई रीति, प्रीति देखी एक इनही मैं, "हमहूँ कहावे, ऐपै. बटा हूँ न पाई हैं।" दियौ पट आधौ फारि, गहि के निकारि लई, भई सुखसैल, पाचं पीपा सौ सुनाई है ।। २६२ ।। (३२७) . वातिक तिलक। श्रीसहचरीजी ने पूछा कि "भगतिनजी नंगी क्यों हो?” उत्तर दिया कि "दिन इसी भाँति व्यतीत होते हैं, साधुसेवा में विलक्षण सुख की प्राप्ति हुआ करती है, उस सुख के सामने कुछ भी दुस ऐसा जान नहीं पड़ता, जब संत कृपा करिक पधारते हैं, तो असीम सुख मिलता है, तब इस चरचा की क्या आवश्यकता रहती है कि "तन ढका है कि नंगा!" सहचरीजी ने बातों में सब कुछ समझ लिया और जाना कि "श्रोह । श्रीसीतारामकृपा से इनकी रीति प्रीति वर्ताव इन्हीं में है, हमलोग भी संतभक्त कहलाते हैं, पर इनकी छटा भी हममें कहीं पाई नहीं जाती।" अपने वन में से आधा फाड़कर उनको पहिनाया और हाथ पकड़ के वहाँ से लिवाय लाई, जितना सुख समूह हुआ वह वर्णन नहीं हो सकता है ।। - प्रसाद पाने के अनंतर श्रीपीपाजी से श्रीसहचरीजी ने सब वार्ता विस्तारपूर्वक कह सुनाई। (३५४) टीका । कवित्त । (४८९) "करें वेस्या कर्म, अब धर्म है हमारो यही," कही, जाय वैठी जहाँ नाजनि की ढेरी है। घिरि आये लोग जिन्हें नैननि को रोग, लखि दूर भयो सोग, नेकु नीकहूँ न हेरी है । कहँ “तुम कौन ? "वारमुखी, नहीं भौन संग भरुवा” सु गहै मौन, सुनि परी बेरी है। करी अन्न रासि मागे मुहर रुपैया पागे, पटै दा चीघर के, तब ही निवेरी है ॥ २६३ ।। (३३६)