पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५२३

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श्रीभक्तमाल सटीका '. वात्तिक तिलक । श्रीसहचरीजी ने कहा कि "मेरा अब यही धर्म है कि अपनी सौन्दर्यता को बेचूं, और इन दंपति को अन्नादि दूँ॥ सो० "हरि जन चरित विचित्र, जिमि हरि चरित विचित्र अति ॥ जानिय सदा पवित्र, नहिं संशय, वे अलख गति ॥ १ ॥ दो “चरित समर्थन के अलख, गूढ़ अतयं, श्रदोस । जे सुनि ईर्षा करहिं ते, मूढ़ अविद्याकास ॥१॥ बड़े कहैं सो कीजिये, करें सो लेब बिचार। श्याम कीन्हि करतूति जे, नहि कर्तव्य हमार॥२॥" यह कह अन्न के गोले (बाजार) में जा बैठी जिन लोगों को वेश्याओं के देखने का रोग था वे लोग वहाँ घिर आये, परन्तु श्री- सहवरीजी के दर्शन के माहात्म्य से उनके रोग सोग जाते रहे, उनके मन पवित्र हो गए और उन्होंने फिर आपकी ओर विषय- दृष्टि से नहीं देखा, पूछा कि “तुम कौन हो?" आपने कहा कि “वारसुखी, मेरे घर गृहस्थी नहीं है और साथ में भडमा (मौन बैठा है ) भी नहीं है।" इतना कह श्राप मौन हो गई। सब लोग वहाँ घिरे खड़े ही रहे, वरंच रामकृपा से सब लोगों को निश्चय निर्णय हो गया कि ये श्रीसीता-सहवरीजी और श्रीपीपाजी हैं, ("तब ही निवेरी है") श्रापके आगे नाज सोना अन्न धन का ढरे लगा दिया। श्राप उस अन्न धन को श्रीचीधड़ भगतजी के घर भिजवा कर तब वहाँ से आप भी उठके श्रीपीपाजी और चीधड़ भगतजी के यहाँ चली आई। उस नाज सोना धन धान्य से श्रीचीधड़जी भली भाँति साधुसेवा करने लगे। (३५५) टीका । कवित्त । (४८८) आज्ञा माँगि "टोड़े" आये, कमँ भूखे क पाये, औचकही दाम पाये, गयो हो स्नान को । मुहरनि भाँडो, भूमि गाड़ो, देखि छाडि प्रायो, कही निसि, तिया बोली "जावी सर प्रान को ॥ चोर चाहैं कोई २ कहते है कि पीपाजी को भंडआ बताया ।।