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भक्तिसुधास्वाद तिलक।

चोरी करें, ढरे सुनि वाही ओर, देखें जो उघारि सांप, डारें हतै पान को। ऐसे आय परी, गनी, सात 'सत बीस भई, तौले पाँच बांट करै एक के प्रमान को॥ २६४ ॥ (३३५) वार्तिक तिलक । श्रीपीपाजी श्रीसीतासहचरी सहित श्रीचीधड़जी और उनकी भगतिन से आज्ञा लेके “ोड़े" नाम के एक गांव में आये । “कभी घी धना कभी मुट्ठी चना कभी वह भी मना" तो विरक्तों के भोजन की ऐसी वार्ता प्रसिद्ध ही है इसका कहना ही क्या है ।। एक दिन स्नान को गये थे, वहाँ अचानक बहुत धन देखा कि स्वर्णमुद्राओं से भरे हुए घड़े धरती में गड़े कुछ कुछ दिखाई दे रहे हैं। आप देख के छोड़ आये । रात को बी से यह बात कही। ये बोली कि “अब से आप उस ठिकाने न जाइये, दूसरे पोखरे पर स्नान को जाया कीजिये ॥" श्रीपीपाजी श्रीसीतासहचरीजी से उस धन के पता ठिकाने की जब बात जहाँ कर रहे थे। उसी समय वहीं, पास ही चार भी चोरी की ताक में छिपे दोनों की बातें सुन रहे थे, सो वे चोर उसी पते पर पहुँचे, और उन पात्रों को देखा भी, परन्तु जो उनको खोलें तो उन में विषधर साँप देख पड़े क्रोध से भरके वे चोर उन वरतनों को उठालाये और श्रीपीपाजी के घर में गिरा दिया; ऐसे घर बैठे ही धन पहुँच गया, श्रीपीपाजी ने गिने तो सोने के भारी भारी मुद्रे (७२० सात सौ बीस) थे, जो एक एक स्वर्णमुदा तौल में पाँच पाँच तोले का था। (३५६ ) टीका । कवित्त । (४८७ ) जोई आवै द्वार, ताहि देत हैं अहार, और बोलि के अनंत संत भोजन करायो है। बीते दिन तीन, धन खाय प्याय छीन कियो, लियो सुनि नाम नृप, देखिबे को आयो है ॥ देखि के प्रसन्न भयो, नयो, "देवो दीक्षा मोहि,” “दीक्षा है अतीत, करें श्राप सो सुहायो है”। “चाहो सोई करौं, है कृपाल, मोको ढरौ,” “अजू ! धरौ आनि संपति श्री रानी," जाइ ल्यायौ है ॥ २६५ ॥ (३३४)