पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५२५

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श्रीभक्तमाल सटीक। वात्तिक तिलक । __श्रीपीपाजी उस धन को पाके साधु भागवत अतिथि और भूखों को खिलाने लगे, जो पाता था उसको पूरा भोजन देते थे, और प्रति दिन बहुत संतों को बुला के भंडारा देते थे, तीन दिन इसी धूमधाम से व्यतीत हुए, सब धन खिला पिला उड़ा दिया। वहाँ का राजा "सूर्यसेनमल" आपका नाम सुन के दर्शन को प्राया, देख के बड़ा प्रसन्न हुश्रा और बड़ी नम्रता से बार बार दंडवत् कर प्रार्थना की कि “मुझको दीक्षा शिक्षा दीजिये ।" आपने थाज्ञा की कि “पहली शिक्षा अतीत (विरक्त) होना है, जो हो सके तो हो क्योंकि हम अपने सरीखा सुंदर कर लेते हैं" राजा ने कहा कि "जो कहियेगा सो करूँगा, आप मुझपर कृपा कीजिये ।" श्री- पीपाजी ने आज्ञा की कि “अपनी सब संपत्ति और रानी लाके मुझको भेंट दे दें" राजा ने वैसा ही किया ॥ (३५७) टीका । कवित्त । (४८६) । करिक परीक्षा, दई दीक्षा, संग रानी दई, “भई ए हमारी, करौ परदा न सन्त सों । दीयौ धन घोरा कछु, राख्यो दै निहोरा, भूप मान तन छोरा, बड़ी मान्यौ जीव सन्त सों ॥ सुनि जरि बरि गये भाई "सेनसूरज” के, ऊरज प्रताप कहाकहैं सीताकत सों। पायो वनिजागै, मोल लियो चाह खैलनि को दियौ बहकाय, कहाँ पीपा ज़ अनंत सों ॥ २६६ ॥ (३३३) वार्तिक तिलक । इस भाँति परीक्षा लेकर श्रीपीपाजी ने राजा सूर्यसेनमल को दीक्षा दी, और रानी तथा राज्य उसको फेर देके यह शिक्षा दी कि "रानी और राज्य सब कुछ मेरा है, तू अपना न समझ, भगवन्त और सन्तों की सेवा किया कर और सन्तों से कुछ अोट न रखना, ए रानियाँ सामने दर्शन किया करें ॥" वारंवार बिनय करके एक घोड़ा और एक तोड़ा भेंट करके राजा विदा हुआ । राजा ने अपने नृपतित्व का अभिमान छोड़ा और