५०७ भक्तिसुधास्वाद तिलक । स्वामीजी की आज्ञानुसार सन्त तथा जीव जन्तु की सेवा करने लगा। राजा सूर्यसेनमल के भाई इत्यादि यह सब देख सुन दुष्टता से जल भुन गये, परन्तु श्रीसीतारामजी तथा श्रीसीतासहचरीजी के कान्त श्रीपीपाजी के ऊँचे (ऊरज) प्रताप से ची नहीं कर सकते थे। एक बनिजारा बैल मोल लेने आया दुष्टों ने उससे कह दिया कि पीपाजी के पास बहुत अच्छे अच्छे खैला (नाटा)बैल अनन्त हैं। (३५८) टीका । कवित्त । (४८५) बोल्यो बनिजारो दाम खोलि, "खैला दीजिये जू!” “लीजिये जू । आय, गाँव चरन पठाये हैं।" गये उठि पाछे बोलि सन्तनि, महोच्छौ कियो, आयो वाही समै, कही "लेहु मन भाये हैं।" दरसन करि, हिये भक्तिभाव भयो पानि, प्रानिक सबन सब साधु पहिराये हैं। और दिन न्हाने गये घोड़ा चढ़ि छोडि दियो, लियौ, बाँध्यौ दुष्टननि, आयौ, मानौ ल्याये हैं ॥२६७॥ (३३२) बात्तिक तिलक। वह बनिजारा श्रीपीपाजी की कुटिया में आ बहुत से रुपये सामने रख, बोला कि "मुझे खैला (बैल) चाहिये ।" आपने कहां कि “बहुत अच्छा, जितने चाहिये उतने लीजियो, बैल गाँव में चरने के लिये गये हैं, कल दो पहर से पहले आना।" आज्ञानुसार उधर बनिजारा रुपये दे चला गया, और इधर आपने न्योता दे दे के सन्तों को बुलवाया, उसके सब रुपये भंडारे में लगादिये ॥ दूसरे दिन सहस्रशः सन्त इकट्ठे हुए थे उसी महोत्सव के समय वनिजारा भी आ पहुँचा और बैल माँगे आपने उत्तर दिया कि "इन संतों को देख, कि परलोक की खेप पहुँचा देनेवाले ये कितने बैल भोजन कर रहे हैं, मैं इन्हीं बैलों का वाणिज्य करता हूँ सो ले ।" संतो के दर्शन करके उसकी बुद्धि निर्मल हो गई और उसने बड़ा आनन्द पाया, शीघ्र ही वस्त्र भी लाके सन्तों को उदाया पहनाया, और रुपये भी संतों के वन के लिये दिये । इस प्रकार से उस बड़भागी