पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५२८

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। जाय करि ल्याइयै”। विषई बनिक एक देखि के बुलाइ लई दई सब सौंज कही “सही निसि भाइय" ।। भोजन करत मॉम पीपा ज पधारे, पूछी वारे तन पान जब कहिके सुनाइये । करिक सिंगार सीता चली झुकि मेह आयौ, काँधे पै चढ़ायौ वपु बनिया रिझाइयै ॥२६८॥(३३१) वात्तिक तिलक । श्रीपीपाजी महाराज को राजा सूर्यसेनमल ने एक झगड़े के न्याय में सहायता लेने के लिये सादर सविनय बुलाया था, सो आप वहाँ गए थे। पीछे में आपकी कुटी में सन्तों का समाज आया। श्रीसीतासहचरीजी ने संतों को सादर सप्रेम श्रासन दिला, घर में देखा तो अन्न कुछ भी न था, विचारा कि “जाके कहीं से कुछ अन्नादि लाना चाहिये।" इसलिये चलीं । श्रापको देख एक विषयी बानिये ने सबसामग्री पूरा पूरा, यह वचन लेके, कुटी पर पहुँचवा दिया कि “रात को अवश्य आना।" जिस समय संत भगवत्प्रसाद पा रहे थे, श्रीपीपाजी आ पहुँचे और देखके अति आनन्द को पास हुए। समय पाके पूछा और सुना कि यह ऋद्धी सिद्धी कहाँ से आई। सब मर्म जानकर, श्रीसहचरीजी पर अति प्रसन्न हो तनमन प्राण निछावर किया। रात को जब श्रृंगार करके श्राप बनिये बापुरे के पास चलीं तो कुछ कुछ पानी नरसने लगा इसलिये श्रीपीपाजी ने आपको अपने कंधे पर बिठा लिया। (३६०) टीका । कवित्त । (४८३) हाट पै उतारि दई, दार आप बैठे रहे, चहे सूके पग, “माता ! कैसे करि श्राई हो ?” “स्वामी जू लिवाय ल्याये,” “कहाँ हैं ?” “निहारी जाय,” आय पाँय पखो डखो, राखौ सुखदाई हो ॥ “मानौ जिनि संक. काज कीजिये निसंक, धन दियौ बिन अंक, जापै लरै मरै भाई हो”। मस्खो लाज भार, चाहे घसौं भूमि फार, दृग बहे नीर धार, देखि, दई दीक्षा पाई हो ॥२६६॥ (३३०)