पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५३

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श्रीभक्तमाल सटीक । चौपाई। "जेहि मारत गिरि मेरु उड़ाहीं । कहहु तूल केहि लेखे माहीं।" अतः उसको छोड़कर, इस दीन ने स्वमति अनुसार इस तिलक में केवल मूल तथा कवित्त के अर्थमात्र ही लिखने पर चित्त दिया। सब सज्जनों से पुनः पुनः कृपा असीस की इस दीन की प्रार्थना है ॥ यह बात विदित ही है कि "भक्तमाल" की शुद्ध प्रति आजकल हूँढ़ निकालनी भी कोई सहज ही सी वार्ता नहीं है ॥ (८) भक्तमालस्वरूप वर्णन । कवित्त । (८३५) बड़े भक्तिमान, निशिदिन गुण गान करें, हर जग पाप, जाप हियो परिपूर है। जानि सुखमानि हरि सन्त सनमान सचे, वचेऊ जगत रीति, प्रीति जानी मूर है । तऊ दुगराध्य, कोऊ कैसे के अराधि सके, समझो न जात, मन कंप भयो चूर है । शोभित तिलकमाल, माल उर राजै, ऐपे विना भक्तमाल भक्तिरूप अति दूर है ॥८॥ (६२१) वात्तिक । चाहे कोई कैसे ही बड़े भक्तिमान हों, रात दिन हरिगुण गाया करते हों, संसार के पापों को हरते भी हों, भगवन्नाम जपा करते भी हों, उनका हृदय सद्गुणों तथा भगवद्ध्यान से भरा भी हो, ज्ञानमान भी हों, (तनु- कम्प और हिय चूर्ण भी हों.) श्रीहरि तथा सन्तों के सन्मान में भी सांचे हों, और उसी में सुख मानते भी हों, रीति से नाम जपते भी हों, सांसारिक प्रपंच से बचे भी हों, प्रेम को ही जड़ वा सार जानते हों, ललाट में तिलक और उर में माला भी सुशोभित हों, यह सब ठीक है सब कुछ हो, तथापि भक्ति की भाराधना कठिन ही है, ओह ! कोई किस प्रकार से पाराधना कर सकता है ? भक्ति की विलक्षण सूक्ष्मगति समझ में नहीं पाती, मन कांप उठता है, हृदय चूर-चूर हो जाता है। सारांश यह कि "श्रीभक्तमालजी" को पढ़े समझे और मनन किये विना, श्रीसीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकला।