पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४

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purnimuaAmmmradu r di PrimHHHHHI + भक्तिसुधास्वाद तिलक । श्रीभक्तिमहारानी की आराधना और उनके स्वरूप का जानना अतीव दूर तथा असम्भव है। इस कवित्त में यह शंका है कि "जो जो श्रीभक्ति के अंग इसमें कहे है, तिनसे पृथक भी क्या और भी कोई भक्ति का रूप है?" समाधान:-नहीं, परन्तु इन्हीं अंगों की निष्ठा, पराकाष्ठारूप, भक्तमाल में भक्तों ने आचरण करिकै दिखाए है, कि जिन के श्रवणमात्र से ही, इन अंगों-संपन्न जन भी, निज भक्ति का अभिमान त्याग के निरभिमान पराकाष्ठा भक्तिपद का आशा करते है ।। (उदाहरण ) यथा, बड़े भक्तिमान श्रीपीपाजी ने श्रीधर- भक्त की भक्ति को देखिनिज भक्ति को लघभाना ।। 'गुन गान', जैसेनतकनारायणदास कि शरीर ही त्याग दिया ।। 'नाम जाप', अंतनिष्ठ राजा का कि, तन ही त्याग दिया।। 'श्रीहरिसन्मान सेवा', जैसे मामा भानजे की कि, सरावगी के शिष्य होके कहा कि "पावे प्रभु सुख हम नरक हं गए तो कहा" 1 'सन्तसम्मान', जैसे सदाबती वणिकजी की कि वेषधारा ने बेटा वध किया तब बेटी विवाह दे प्रसन्न किया !! इत्यादिक उदाहरण श्रीभक्तमाल में देख लीजिये । विस्तार के भय से बहुत नहीं लिखे ॥ "श्रीभक्तमाल" क्या है ? उन महानुभावों का जीवनचरित्र कि जिनको हमारे करुणा- कर प्रभु की दयालुता विशेष अपने छवि समुद्र में मग्न कर चुकी है । उसके श्रवण मनन निदिध्यासन बिना, उस रस मे किसी का प्रवेश कैसे सम्भव है ? क्रिया का यथार्थ स्वरूप कर्ताओं ही के आचरण जानने से पूर्णतः तथा शीघ्रतर अन्त:करण में श्रवणादि द्वारा पहुंच कर गुणकारक और सुखप्रद होता है। श्रीभक्तमाल के अपूर्व अधिकार की विलक्षणता चित्त पर कैसी होती है, इसका अनुभव श्रीभक्तमाल के पढ़ने सुननेबालों ही को होता है। (६) अथ मूल मंगलाचरण ॥ दोहा ॥ (८३४) भक्त, भक्ति,भगवंत, गुरु, चतुर नाम बपु एक। इनके पद बंदन किये, *नाशैं विघ्न अनेक ॥१॥(२१३) बिनौं तिलक। "श्रीभगवद्भक्त” "श्रीभगवद्भक्ति "श्रीभगवत्" और “श्रीगुरु", इनके नाम ही मात्र तो चार हैं, परन्तु वास्तविक स्वरूप एक ही जानिये, इनमें भेद कुछ भी नहीं । विश्वासपूर्वक ऐसा समझ रखिये कि इनके पदसरोज की वन्दना