पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५३८

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । ( ३६६ ) टीका । कवित्त । ( ४७७ ) (१) श्रीरंग चेत धखौ, (२) तिय हिय भाव भयो, (३) बाह्मण को शोक हलो, राजा पै पुजायकै । (४) चंदवा बुझाय लियौ. (५) तेली को लै बैल दियो, (६) दियौ पुनि घर माँझ भयौ सुख श्रायकै ।। (७) बड़ोई अकाल पस्यों, जीव दुख दरि कसो, पखो भूमि गर्भधन पायो दै लुटायकै । (८)अति विसतार लियो, कियौ है विचार, (६) यह सुनै एक बार फेरि भूले नहीं गायकै ॥ ३०५ ॥ (३२४) वात्तिक तिलक। (१) एक समय श्रीरंगदासजी मानसी पूजा कर रहे थे और उनसे फूलों की माला का पहनाना सहज में नहीं बनता था। श्री- पीपाजी ने बता दिया कि “मुकुट उतारके यों पहिनाय दीजिये।" श्रीरंगदासजीने वैसा ही कर, श्रीजानकीनाथ को माला पहिनाय, सुख पा, वह ध्यान विसर्जन कर, श्रीपीपाजी को दण्डवत् किया । सुख- पूर्वक आप दोनों श्रीरंगदासजी के स्थान में रहने लगे। (२) एक दिन दो सुन्दरी प्रति नीच जाति की युवतियाँ उस जगह के समीप गोबर चुन रही थीं कि जहाँ श्रीपीपाजी और श्री- रंगजी विराज रहे थे। चौपाई। "श्रीपीपा बोल्यो मुसकाई । राम भिन्न मोहिं कोउ न दिखाई ॥ ऐसा सुन्दर मनोहर तनु पाके ये गोवर चुनें, बड़ी दया की बात है, देखो, इन दोनों को उपदेश देकर रामकृपा से कल्याण को पहुँचा दूंगा।” इतना कह उन दोनों को अपने पास बुला लिया। वे अति नम्र और सरल हाथ जोड़े सम्मुख श्रा खड़ी हुई। श्रीपीपाजी ने उनसे कहा कि “ऐसा सुन्दर तन पाने का लाभ यह है कि श्रीजानकीजीवन शोभाधाम अखंडैकनित्य किशोर का भजन करो।” यह उपदेश उन दोनों युवतियों के हृदय में ऐसा लगा कि उसी क्षण ऊर्ध्वपुण्डू लगा, कंठी पहन, श्रीसीताराम सीताराम मनो-