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श्रीभक्तमाल सटीक।

हर स्वर से गाती हुई, घर को गई, और श्रीभगवद्भक्ति उनको अत्यंत प्रिय लगने लगी। दो० "देह गेह की सुधि नहीं, टूट गई जग प्रीति । नारायण गावत फिर, प्रेम भरे हरि गीति ॥" घरवालों को महाविमुख पा, परित्याग कर, वे दोनों उलटे पाँवों फिरी और श्रीपीपाजी के पास पहुँचीं। दो० "जरौ सुसंपति सदन सुख, सुहृद मातु पितु भाइ । सन्मुख होत जो रामपद, कर न सहज सहाइ ॥" निदान वह दोनों पाप ही के शरण में रहने लगी और श्रीभगवत्- यश गाया करती थीं। (३) एक ब्राह्मण ने अपनी कन्यादान में सहायता के लिये श्रीपीपाजी से विनय किया। श्रीपीपाजी ने (ब्राह्मण को जगद्गुरु जान) उस व्यक्ति को वहाँ के राजा के पास भेजा कि “ये मेरे गुरु हैं, यदि आपको श्रद्धा हो तो कन्यादान में इनकी सहायता कीजिये।" राजा ने उस ब्राह्मण को बहुत रुपये दिये ।। (४) कुछ दिन सत्संग का सुख दे, श्रीरंगदासजी से विदा हो, टोड़ेनगर में अपने स्थान पर फिर भाये । एक एकादशी की राति को राजा सूर्यसेन के सामने जागरण कीर्तन हो रहा था, अकस्मात उसी समाज के मध्य श्रीपीपाजी उठके हाथ मलने लगे। सबने देखा कि हाथ में कारिख लग गयी। राजा ने इस आश्चर्य का हेतु पूछा, आपने उत्तर दिया कि श्रीदारकाजी में भगवन के चदोवा में आग लग गई थी उसको बुझा दिया है। राजा ने “साँडिनीसवार" भेज के पुलवाया तो यथार्थ जाना गया कि उस एकादशी की राति को भगवत् चंदोवा में आग लग गई थी सो श्रीपीपाजी ने बुझाई थी जो यहाँ उस राति को उपस्थित थे। (५) किसी दिन आप स्नान को गये थे, वहाँ एक तेली का लड़का पानी पिलाने के लिये बैल लाया, उसी समय एक ब्राह्मण ने श्रीपीपाजी से रो रो के कहा कि “एक बैल के विना मेरी खेती गृहस्थी