पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४१

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श्रीभक्तमाल सटीक। वात्तिक तिलक। श्री १०८ धनाजी महाराज के भजन को धन्य है कि बीज बोए विना ही उनका खेत उगा (जमा) आपके घर सन्त लोग आये, उनको जो गेहूँ विया के लिये रक्खा था सो पवादिया। माता पिता के डर से छूछ ही खेत में लांगूल (हल) चलवा दिया, जिससे जान पड़े कि इसमें भी वीजवाए हुए हैं। आसपास के गृहस्थ आपके खेत की (ठट्ठासे) बड़ाई किया करते थे। साधुसेवा की रीति तथा परवीति प्रत्यक्ष देखी। जग में इस बात के मुननेवाले धाश्चर्य मानते हैं कि बोया गया किसी और खेत में और उपजा किसी और ही खेत में । विना बीज बोए ही जिनका खेत उपजा, ऐसे श्री १०८ धनाजी का भजन धन्य (३६८) टीका । कवित्त । (४७५) खेत की तो बात कही प्रगट कवित्त माँझ, और एक सुनो, भई प्रथम जुरीति है। श्रायो साधु विप्रधाम, सेवा अभिराम करे, ढखौ दिग प्राय, कही "मोहूँ दीजै प्रीति है" | पाथर लै दियो, “अति सावधान कियौ" छाती मह लाय जियो, सेवे जैसी नेहनीति है । रोटी धर आगे, आँखि मूदि लियो, परदा के, लियो नहीं टूक, देखि भई बड़ी भीति है ॥ ३०६ ।। (३२३) वात्तिक तिलक। श्रीधना भक्तजी के बिना वीज ही खेत उपजने की बात तो श्रीनाभा स्वामीजी ही ने अपने कवित्त (छप्पय) में कह दिया, अब और एक बात सुनिये, कि जिस रीति से श्रीधना भक्तजी को प्रथम भक्ति उत्पन्न हुई। एक समय आपके गृह में एक श्रीभगवद्भक्त ब्राह्मण आये सो श्रीशालग्रा- मजी की भली प्रकार पूजा करने लगे, देखके धना भक्तजी समीप में जाके कहने लगे कि “स्वामीजी ! मुझे भी ठाकुरजी दीजिये, मुझे बड़ी प्रीति है पूजा करूँगा।"सुनके भक्त दिजवर ने एक गोल मोल पत्थर देकर कहा कि