पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४२

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+ MANI Man THEImmort a mbh भक्तिसुधास्वाद तिलक । ५२३ 'ठाकुरजी लो, सावधान हो प्रेम से पूजा करना।" धना भक्तजी ने ठाकुर लेकर हृदय में लगाके मानों प्राण पाया, और जैसी प्रेम की रीति नीति है वैसी सेवा पूजा आप करने लगे।जैसे ब्राह्मणजी को भोगलगाते देखा था वैसे ही आगे रोटी धर भोट (आइ) कर, आँखें मूंद के भोग लगाया फिर देखें तो एक ट्रक भी रोटी प्रभु ने नहीं खाई तब आपको बड़ा भय हा॥ (३६९) टीका । कवित्त । (४७४) बार वार पाँव परे, अरे, भूख प्यास तजी, धरै हिये साँचौ भाव पाई प्रभु प्यारियै । छाक नित आवे नीकै, भोग को लगावै, जोई छोड़ सोई पावै, प्रीति रीति कछु न्यारिय। जाको कोऊखाय ताकी टहल बनाय करै ल्यावत चराय गाय हरि उर धारियै । प्रायौ फिरि विष नेह खोज हूँन पायो कहूँ सरसायो वातै लै दिखायो स्याम ज्यारियै ॥३०७॥ (३२२) वात्तिक तिलक। श्रीठाकुरजी को बारंबार प्रणाम करने लगे, हठपूर्वक अन्न जल छोड़- कर प्रार्थना की। हृदय में सच्चा भाव देख अति प्रियमान प्रभु ने रोटी खाई। अब तो जो खाने को छाक (कलेऊ) को रोटी आती थी सो नित्य ही प्रभु को भोग लगाने लगे। जो प्रभु छोड़ देते थे, उतनाही प्रसाद आप पाते थे, क्योंकि प्रीति की रीति तो जगत् से न्यारी ही है । एक दिन ठाकुर- जी आपसे कहने लगे कि “जिसका कोई खाता है उसकी टहल भली प्रकार से करता है इससे हम तुम्हारी गऊ चराय लाया करेंगे ऐसा कहकर उसी दिन से श्रीहरि नित्य ही गऊ चराय लाया करते थे। कुछ काल बीते उन भक्त ब्राह्मण ने फिर श्रीधनाजी के घर में आके देखा तो पाषाण पूजा के स्नेह का खोज भी नहीं पाया । तब धनाजीसे पूछा कि "पूजा करते हो कि नहीं ?" तब श्रीधनाजी सब वृत्तांत कह गये कि "स्वामीजी ! कई दिन तो प्रभु ने कुछ नहीं पाया इससे मैंने भी नहीं खाया।