पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४३

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.4-10 -4ta.rnment10. M e ५२४ श्रीभक्तमाल सटीक। अब तो आपकी मूर्ति ही में से प्रगट होकर रोटी भी खाते हैं और गैया भी चरा लाते हैं।" यह सुन बाह्मणजी अति चकित हुए और सप्रेम हृदय से कहने लगे कि “धना । हमको भी तो दिखा दे।"धनाजी वहाँ ले गये जहाँ आप गऊ चराते थे, परन्तु ब्राह्मण को न दीख पड़े। निदान, धनाजी की प्रार्थना से श्यामसुन्दरजी ने दर्शन दे मानों ब्राह्मण को मरे से फिर जिया लिया । ( ३७० ), टीका । कवित्त । ( ४७३ ) द्विज लखि गायनि मैं, चायनि समात, नाहि, भायनि की चोट हग लागी नीर झरी है। जायकै भवन, सीता-रवन प्रसन्न करै, बड़े भाग मानि प्रीति देखी जैसी करी है । धना को, दयाल हैकै, आज्ञा प्रभुदई “ढरौ, करौ गुरु रामानंद, भक्ति मति हरी है। यए शिष्य जाय, श्राप छाती सों लगाय लिये, किये गृहकाम सबै, सुनि जैसी, धरी है॥३०८॥ (३२१) वात्तिक तिलक । ब्राह्मणजी के हृदय में, गायों के बीच में श्रीप्रभु की छवि माधुरी देखके, आनन्द का उत्साह नहीं समाता, प्रेमभाव की चोट चित्त में लग गई, इससे अानन्दमय आँसुओं की झरी भी नेत्रों से लग गई । और यह निश्चय किया कि “अब गृह में जाके मैं भी सप्रेम भजन कर श्री- सीतारामजी को प्रसन्न करूँ। मेरा कोई बड़ा भाग्य था कि इस बड़- भागी धना के संग से मुझे श्रीरामजी का दर्शन हुआ।"श्रीदिजभक्तजी ने जैसी धनाजी की प्रीति और उस प्रीति का प्रभाव देखा वैसा ही इन्हों- ने श्राप भी किया ॥ ब्राह्मणजी के चले जाने पर, गुरु शिष्य संप्रदाय के परिपालक प्रभु ने परम दयाकर धनाजी को आज्ञा दी कि “अब तुम श्रीकाशी- जी में जाके श्रीरामानन्दजी को गुरु करके श्रीरामतारकमंत्र ग्रहण करो, तुम्हारी प्रीति भक्ति ने हमारा मन हर लिया।" आज्ञा पा, श्री. रामानंदजी के शिष्य हो, फिर घर में आके प्रभु को प्रगट पा, चरणों