पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५२६ श्रीभक्तमाल सटीक । (३७२) टीका । कवित्त । (४७१) “बाँधोगढ़"वास, हरि साधु सेवा आस लागी, पगी मति अति, प्रभु परचौ दिखाया है। करि नित्त नेम, चल्यो भूप को लगाऊँ तेल, भयौ मगमेल संत, फिरि घर श्रायौ है ॥ टहल वनाय करी, नृप की न संकधरी, धरि उर श्याम,जाय भूपति रिझायो है । पाछे सेन गयौ, पंथ पूछे, हिये रंग छायो, भयो अचरज राजा वचन सुनायौ है ॥३०६॥ (३२०) वात्तिक तिलक। "श्रीसेन भक्तजी" का निवास “वघेलखण्ड बांधवगढ़" में था। सापकी आशा श्रीसीतारामजी तथा संतों की सेवा पूजा में लगी रहती थी, और उसी में अतिशय प्रीति रीति से मति पग गई थी। तब श्रीप्रभु ने परचो दिखाया कि एक दिन श्रीसेन भक्तजी श्रीराम पूजा मंत्र जप आदिक नित्य नेम कर गृह से राजा वीरसिंह के तेल लगाने के लिये चले, मार्ग में बहुत से संत मिल गये, आप सबको दंडवत् प्रणाम कर प्रार्थनापूर्वक लौटके अपने घर में लिवाय लाये। राजा की भय शंका छोड़, सन्तों की भले प्रकार सेवा पूजाकर रसोई बनवाके सन्तों को प्रसाद पवाने लगे। सेन भक्त की प्रीति देख प्रभु श्यामसुन्दर ने, जैसा छप्पय में कहि भाये वैसा ही जाके, राजा की सेवा कर प्रसन्न किया। सन्तों की सेवा करने के पीछे सेन भक्त राजा के समीप चले, मार्ग में राजा के समीप से आनेवाले लोगों से आपने पूछा कि “राजा महाराज स्नान कर चुके, तो तैख किसने लगाया था ?" लोगों ने कहा “आप ही ने तो लगाया है।"सुन के भक्तजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ और जाना कि यह कुछ प्रभु की कृपा कौतुक है, इससे आपके हृदय में अतिशय प्रेम-रंग का उमंग छा गया । जब सेन भक्त राजा के पास गये तब राजा पूछने लगा।