पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४६

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५२७ भक्तिसुधास्वाद तिलक । (३७३) टीका । कवित्त । (४७०) "फेरि कैसे आये ?” सुनि अति ही लजाये, कही “सदन पधारे सन्त, भई यों अबार है । श्रावन न पायों वाही सेवा अरुझायौं,” राजा दौरि सिर नायौं, देखी महिमा अपार है ॥ भीजि गयो हियो, दासभाव दृढ़ लियो, पियौ भक्तिरस, शिष्य हैकै जान्यौ सोई सार है । अवलौ हूँ प्रीति, सुत नाती वही रीति चलें, हीय जो प्रतीति प्रभु पावै निरधार है ॥ ३१०॥ (३१६) ___ चात्तिक तिलक । राजा बोला कि “सेन ! तुम अब फिर किस लिये भाये ?" आप अति लज्जित हो हाथ जोड़ प्रार्थना करने लगे कि "हे महाराज! मेरे गृह में सन्त लोग कृपा कर बागये, सो उनकी सेवा सत्कार करने लगा थाने न पाया, इससे विलम्ब हो गया।" ऐसा सुन राजा को प्रभु के कर कमल स्पर्श का अलौकिक सुख तो हुआ ही था, इससे जान गया कि “सेन” का रूप धारण कर, भगवान ही आये थे॥ राजा वीरसिंह दौड़कर श्रीसेन भक्तजी के चरणों पर गिर पड़ा, यह विचार करने लगा कि 'मोह ! इन भक्तजी की अपार महिमा हैं, निदान राजा का हृदय श्रीरामप्रेसरस में डूब गया और श्रीसीतारामजी का तथा श्रीसेन भक्तजी का दास्यभाव मन में दृढ़ धारण कर, श्रापका शिष्य होकर श्रीभक्तिरस को पान कर उसी को सारांश जान, जगत् को प्रसार माना॥ __टीकाकार कहते हैं कि अब तक भी सेन भवजी के पुत्र पौत्रादिक उसी सन्त भगवन्त की सेवा भक्ति रीति में चलते हैं । यह बात निश्चय है कि जो हृदय में सच्ची प्रीति प्रतीति हो तो प्रभु अवश्य मिलते हैं। (७८) श्री ६ सुखानन्दजी। __(३७४) छप्पय । (४६९) भक्तिदान, भैहरन भुज, "सुखानंद" पारस परस। "सुखसागर" की छाप राग गौरी रुचि न्यारी । पद-