पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४७

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. ... M- श्रीभक्तमाल सटीक। रचना गुरु मंत्र मनों आगम अनुहारी ॥ निसिदिन प्रेम प्रवाह, द्रवत भूधर ज्यों निर्भर । हरिगुन कथा अगाध भाल राजत लीलाभर ॥ संत कंज पोपन बिमल, अति पियूष सरसी सरस । भक्तिदान भै हरन भुज, "सुखानन्द" पारस परस ॥६४॥ (१५०) वात्तिक तिलक । जनों को भक्तिदान देने में तथा संसार के भय हरने में श्रीसुखानन्द- जी श्रीरामरघुवीरजी के भुजा के सरीखे रहे, और लोहा सरीखे खोटे जीवों को अपने संगरूपी स्पर्श से सुवर्ण सरीखा उत्तम संत कर देने के लिये मानों पारस मणि ही थे। चौपाई। "सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परसि कुधातु सुहाई ॥" दो० “पारस में अरु संत में, बड़ी अंतरौ जान । वह लौहा सोना करे, ये करें श्राप समान ॥" • आप अपने पदों की पूर्ति में "सुखसागर" की छाप दिया करते थे, जैसे श्रीमीराबाई "गिरधर नागर' की, और आपने गौरी राग में बहुत से पद बनाये हैं । उनमें लोक से न्यारी ही प्रियतारूचि प्राप्त होती है। और आपने ऐसे प्रभाव युक्त नियमानुकूल पदों की रचना की है कि मानों गुरुमंत्र ही है अथवा दिव्य संहितातंत्र है, दिन रात्रि श्रीराम प्रेमाश्रु का प्रवाह नेत्रों से ऐसा चलता था कि जैसे श्रीचित्रकूट पर्वत के भरना झरते हैं, श्रीसीताराम गुणगण बहुत गाया करते थे। कथा लीलारूपी विमल अमृत से अतिशय भरे हुए, संत जन कमलों के पोषक विकासक, मानों अति सरस तड़ाग, (तालाब) ही थे, और जब भगवतकथा कहने लगते थे तब श्रीसुखानन्दजी का ललाट (लिलार) अति प्रकाशमान राजता था।