पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४८

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५२९ MA H ARAMJHIMNarendramdive भक्तिसुधास्वाद तिलक । (७६) श्री ६ सुरसुरानन्दजी। (३७५) छप्पय । (४६८) महिमा महाप्रसाद की “सुरसुरानन्द" साँची करी॥ एक समै अध्वा चलत बरा बाक छल पाये। देखादेखी शिष्य तिनहुँ पाछै ते खाये॥तिन पर स्वामी खिजे बमन करिविन बिस्वासी।तिन तैसे परतच्छ भूमि पर कीनी रासी ॥ “सुरसुरी-सुवर" पुनि उदगले, पुहुप रेनु, तुलसी हरी । महिमा महाप्रसाद की "सुरसुरानन्द" साँची करी ॥६५॥ (१४६) वात्तिक तिलक । श्री १०८ सुरसुरानंदजी ने भगवत् मुक्तावेष में महाप्रसाद की महिमा जैसी भक्तिग्रंथों में लिखी है वैसी सत्य करके प्रत्यक्ष दिखा दिया । एक समय शिष्यों को साथ लिये मार्ग में चले जाते थे । वहाँ किसी वैष्णवद्रोही नीच ने उरद का बरा बहुत सा बनाया और उसमें मांस भी मिला दिया था फिर उसने तुलसी छोड़ वाक्यछल, कर आपसे कहा कि “यह भगवत्प्रसाद है लीजिये, पाइये।" श्राप थोड़ा सा हस्त में ले प्रसाद ध्यान भावपूर्वक पाकर आगे चल दिये । किंचित् ही अंतर में शिष्य लोग थे, उन्होंने देखा कि स्वामीजी ने यह प्रसाद पाया है। फिर उस दुष्ट ने उन लोगों को भी “प्रसाद" कह वही बरा दिया सो सबके सव स्वादबुद्धि से बहुत खाकर स्वामीजी के समीप आये,

तब आपने क्रोध करके कहा कि "क्यों रे मूल् ! तुम लोगों ने भाव

विश्वास विना ही बरा क्यों खा लिया ? वमन करो" उन्होंने जो वमन किया तो वैसे ही बरा भूमि में राशि लग गया, सबके सबने जल । लेकर कुल्लियाँ की, तदनंतर श्रीसुरसुरी के पति श्रीसुरसुरानन्दजी अपने "वैष्णवे भगवद्भक्तीप्रसादे हरिनाम्नि च । अल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नव जायते ।।"