पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५४९

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५३० श्रीभक्तमाल सटीक। मुँह में उँगलियाँ दे वमन कर उस प्रसाद को देखें तो वह बरा साक्षात् हरित तुलसीदल, पुष्प तथा रेणु हो गया कि जिसकी सुगंधि चारों दिशि में छा गई । इस प्रकार से आपने महाप्रसाद की महिमा दिखाई। श्रीमहाप्रसाद की जय ॥ श्रीसुरसुरानन्दजी ही के द्वारा श्रीधरनीदासजी थे । श्रीसरयूतट (माझीसारन) श्रीप्रसादीदासजी (एकमा स्टेसन परसा सारन ।) (८०) श्री६ सुरसुरीजी देवी। (३७६) छप्पय । (४६७) महासती सत ऊपमा, त्यों सत्त "सुरसुरी” को रह्यो। अति उदार दंपती त्यागि गृह, बन को गवने ॥अचरज भयो तहँ एक, संत सुन जिन हो विमने।बैठे हूते एकांत आय असुरनि दुखदीयौ।सुमिरे सारंगपानि रूप नरहरि कौ कीयौ । सुरसुरानन्द की घरनिको, सतराख्यो नरसिंह जैह्यो । महासती सत ऊपमा त्यों सत्त "सुरमुरी” को रह्यो ॥६६॥ (१४८) बात्तिक तिलक । श्रीअरुन्धती, अनुसूया, लोपामुद्रा, सावित्री,आदिक जो महासती हैं तिनके सत्त के समान श्रीरामकृपा से "श्रीसुरसुरीजी" का सत्य पातिव्रत अखण्ड रह गया। एक समय अति उदार दम्पति श्री "सुरसुरानन्द जी और श्री "सुरसुरी" जी अपने गृह की सब सम्पत्ति दान कर, श्रीसीता- रामजी के भजन करने के लिये, गृह त्याग, उत्तम वन में श्राए। हे सन्तो वहाँ एक पाश्चर्य हुमा सो सुन प्रभु का विश्वास मान आप आनन्दित होवें । विमन मत होवै ॥ १"जहो"-प्राण त्याग कराया । पाठान्तर 'जयो"-दीत लिया ।