पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५५०

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भक्तिसूधास्वादतिलक। एक समय दोनों मूर्ति एकांत में बैठे थे, वहाँ बहुत से असुर (मुसलमान) आकर, श्रीसुरसुराजी का अति सुन्दर रूप देख, इन को लेने को दौड़े । दम्पति ने श्रीशाङ्गपाणि रघुवीरजी का स्मरण किया, प्रभु ने उसी क्षण नृसिंहरूप धारणकर, सब दुष्टों के प्राण । लेके, श्रीसुरसुरानन्दजी की पत्नी का पातिव्रत रख लिया । तद- नन्तर श्रीराजमाधुरीरूप के दर्शन से भक्त दम्पति को कृतार्थ कर अन्तर्धान हुए। (८१) श्रीदनरहरियानन्दजी। (३७७) छप्पय । (४६६) निपट "नरहरियानन्द" कौं, करदाता दुर्गा भई ॥ घर झर लकरी नाहिं शक्ति को सदन उदाएँ । शक्ति उक्त सौ बोलि दिनहिं प्रतिवरही डारें ॥ लगी परोसी हौंस भवानी बैंसो मारै । बदले की बेगारि मूंड वाके सिर डारै ॥ "भरत" प्रसंग ज्यों कालिका, “लई" देखि तन मैं तई। निपट “नरहरियानन्द" को, कर- दाता दुर्गा भई ॥६७॥ (१४७) बात्तिक तिलक। जैसे राजा को मना कर देते हैं, ऐसे ही श्रीनरहरियानन्दजी को कर भली प्रकार देनेवाली श्रीदुर्गादेवीजी हुई । एक समय मेघों ने जल की बड़ी झड़ी लगाई, और श्रीनरहरियानन्दजी की कुटी में श्री. भगवन्त सन्त के भोग के लिये अनादिक सामग्री तो सब थी, परन्तु सूखी लकड़ी न थी। श्राप विचार करने लगे कि "अब किस प्रकार रसोई हो और श्रीसीतारामजी को भोग लगाके सन्तों को प्रसाद पाऊँ ।" तब १ यह महारानी पन्द्रहवी शताब्दी विक्रमीय मे विराजमान थी । २ "मैं रह गइ आली ! मोहाय करके, प्रभु देखे न पाइर्ड नयन भर के " ३ श्रीलड्डू स्वामी ४ श्रीनरहरियानन्द स्वामी ॥