पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६६

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५४७ t ed i atula 04 I+ Mantra Ingvat- rl भक्तिसुधास्वाद तिक्षक। रूप धर, पण्डित को हरा उसके कानों में जूतियाँ बँधा, गधे पर चढ़ा, पुरी भर में फिराने.लगे। और आप बहुत से लोगों को संग ले पीछे से ताली थपोड़ी बजा हसते ठहाका लगाते थे। पश्चात् आके उस मूर्ख पण्डित को श्रीमाधवदासजी ने छोड़वा दिया। (३९२) टीका । कवित्त । (४५१) अज ही की लीला सब गावै, नीलाचल माँझ, मन भई चाह “जाय नैननि निहारियै”। चले वृन्दावन, मग लग एक गाँव जहाँ बाई भक्त, भोजन को ल्याई चाव भारियै ॥ बैठे प्रसाद लेत, लेत हग भरि, "अहो । कहाँ कहा बात दुख हिये की उघारियै ?"। "साँवरो कुँवर यह कान को भुराय ल्याये ? माय कैसे जीवें" सुनि मति लै बिसारियै ।।३२२॥(३०७) वार्तिक तिलक । श्रीमाधवदासजी वृन्दावन (बज) की ही सव लीला जगन्नाथधाम में गाया करते थे, मन में चाह उत्पन्न हुई कि "नेत्रों से श्रीवृन्दावनजी का दर्शन कर पाऊँ" श्राप वृन्दावन को चल दिये। मार्ग के एक ग्राम में एक बाई भगवद्भक्का थी वह आपका दर्शन कर बड़े प्रेम से घरलाय प्रसाद पवाने लगी, उस बड़भागिनीको श्रीजगन्नाथ- जी ने दश ३० वर्षे का बालक बन आपके समीप ही में दर्शन दिया। वह भक्तिवती दर्शन पा नेत्रों से जल ढारने लगी। माधवदासजी ने कारण पूछा, माई बोली कि “यह साँवला साँवला सा सुन्दर बालक किस का भुलाके (फुसलाके) आप अपने साथ लिबा लाये हैं इसके वियोग से इसकी मैया कैसे जीवैगी।" सुनकर श्रीमाधवदासजी जान गये कि इनको प्रभु ने दर्शन दिया। इससे श्राप भी प्रेम में मग्न हो गये । श्रीकृपा की जय ॥ . (३९३) टीका । कवित्त । (४५०) चले और गाँव, जहाँ महाजन भक्त रहे, गहे मन माँझ, आगे विनती हूँ करी है । गये वाके घर, वह गयौ काहू मोर घर, भाय मरी तिया पानि पायन में परी है ॥ ऊपर महन्त कही "अजू एक