पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५७५

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Musuminstabeau -MH- oaanHam श्रीभक्तमाल सटीक ( ४०३ ) टीका । कवित्त । (४४०) श्रावै कर्भू प्रेम हेमपिंडवत तन होत, कयूँ संधि संधि छूटि भंग बढ़ि जात है। और एक न्यारी रीति आँसु पिचकारी मानों, उभे लाल प्यारी भावसागर समात है ॥ ईशता बखान करो सो प्रमान याकों काह? 'जगन्नाथक्षेत्र नेत्र निरखि साक्षात है। चतुर्भुज षट- भुज रूप लै दिखाय दियो, दियो जो अनूप हित बात पात पात है ॥ ३३१॥ (२६८) वात्तिक तिलक । आपको जब कभी प्रेमावेश होता था तब गौर शरीर तप्त सुवर्ण के पिंड की नाह लाल हो जाता था, और कभी प्रेम से संधि संधि छुट अंग अंग फलि उठते थे। आपकी एक रीति और लोक से न्यारी थी, कि प्रेम के आँसू इस प्रकार चलते थे मानों श्रीलालजी की तथा प्यारीजी की युगल पिचकारी छूटती हैं । इस प्रकार प्रेमभाव के समुद्र में श्राप डूबे रहते थे। ___ जो कहिये कि मूल, टीका के कवित्तों में आपकी ईशता का बखान किया है सो इसका प्रमाण करो तो जगन्नाथ क्षेत्र में सब ने नेत्रों से साक्षात् देखा है कि एक समय प्रेमनृत्य करते करते चतुर्भुज होकर आपने दर्शन दिया। तब लोगों ने कहा कि चतुर्भुज हो जाना तो इस क्षेत्र का प्रभाव ही है तदनन्तर आपने षट्भुज होकर दर्शन दिया। आपने जो हितोपदेश जीवों को दिया सो वार्ता पत्र में लिखा है अद्यापि वहाँ आपके षट्भुज मूर्ति का दर्शन होता है। (४०४) टीका । कवित्त । ( ४३९ ) कृष्णचैतन्य नाम जगत प्रगट भयौं, अति अभिराम ले महन्त देही करी है। जिती गौड़ देश, भक्ति लेसहूँ न जाने कोऊ, सोऊ प्रेमसागर में बोखौ कहि "हरी" है ॥ भए सिरमौर एक एक जग तारिबे को धारिख को कौन साखि पोथिन मैं धरी है। कोटि कोटि अजामील वारि डारै दुष्टता पै, ऐसे हूँ मगन किये, भक्ति भूमि भरी है ॥ ३३२॥ (२६७)