पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५७८

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। (६१) श्रीपरमानन्दजी। (४०६) छप्पय । (४३७) ब्रजवधू रीति कलियुग विर्षे "परमानन्द भयौ प्रेमकेत ॥ पौगंड बाल, कैशोर, गोपलीला सबगाई। अचरज कहा यह बात हुतौ पहिलो जु सखाई ॥ नैननि नीर प्रवाह, रहत रोमांच रैन दिन । गदगद गिरा उदार श्याम शोभा भीज्यौ तन ॥ “सारंग" छापताकी भई, श्रवण सुनत आबेस देत । ब्रजवधू रीति कलियुग विषै "परमानंद" भयौ प्रेमकेत ॥ (७४)॥ (१४०) वात्तिक तिलक । द्वापर में जिस प्रकार गोपी जनों की रीति थी, उसी प्रकार कलियुग विषे श्रीपरमानन्दजी प्रेम के स्थान हुए । श्रीकृष्णचन्द्र के जन्म से पाँच वर्ष तक की बाल लीला, तथा १० वर्ष तक की पौगंड लीला, और दश से सोरह वर्ष के भीतर की कैशोर लीला. ये सब गोप्य चरित्र गान किये । सो इस वार्ता का क्या आश्चर्य है, क्योंकि ये श्रीनन्दनन्दन के प्रथम के सखा ही तो हैं । आपके नेत्रों से प्रेमवारि का प्रवाह, तथा शरीर में रोमांच, राति दिन बना रहता था। और आपकी उदार वाणी सदा गद्गद रहती थी। श्री- श्यामसुन्दर की शोभा से तन मन भीगा रहता था । आपने अपनी कविता में "सासँग" छाप दिया है । आपकी कविता सुनते मात्र में प्रेमावेश देती है। (६२) श्रीकेशव भट्टजी। (४०७) छप्पय । (४३६) "केशोभट" नरमुकटमणि, जिन की प्रभुता. विस्तरी ॥ "कास्मीरि" की छाप, पाप तापनि जग मंडन। दृढ़ हरिभक्ति कुठार, आन धर्म विटप बिह-